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"अक्षम हूं मैं / केदारनाथ अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर

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आतंकित करता है मुझे मेरा सम्मान ।
 
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चाहे  रहूं  अवमानित  ।
 
चाहे  रहूं  अवमानित  ।
  
 
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('पंख और पतवार' नामक कविता-संग्रह से )
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17:48, 10 अगस्त 2009 के समय का अवतरण

आतंकित करता है मुझे मेरा सम्मान ।

इसी वक्त तो परास्त करती हैं मुझे

मेरी कमजोरियां ।

कांपता हूं मैं, यश की विभूति से विभूषित,

रक्त-चंदन का टीका भाल पर लगाए,

पुष्पमाल के रूप में

सर्पमाल को लटकाए ।

अक्षम हूं मैं असमर्थताओं का पुतला,

गौरव-गुन-हीन, अबलीन, धुंधला,

काल-पीड़ित कविता में

बहुत-बहुत दुबला ।

रहने दो बंधु !

मुझे रहने दो अवहेलित,

जीने दो जीवन को तापित औ' परितापित,

निष्कलंक रह लूंगा

चाहे रहूं अवमानित ।