भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"चलो इश्क़ नहीं चाहने की आदत है / फ़राज़" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
<poem>
 
<poem>
 
चलो ये इश्क़ नहीं चाहने की आदत है
 
चलो ये इश्क़ नहीं चाहने की आदत है
करें क्या हम कि हमें दू्सरे की आदत है
+
कि क्या करें हमें दू्सरे की आदत है
  
 
तू अपनी शीशा-गरी का हुनर न कर ज़ाया<ref>व्यर्थ</ref>
 
तू अपनी शीशा-गरी का हुनर न कर ज़ाया<ref>व्यर्थ</ref>

16:03, 19 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण

चलो ये इश्क़ नहीं चाहने की आदत है
कि क्या करें हमें दू्सरे की आदत है

तू अपनी शीशा-गरी का हुनर न कर ज़ाया<ref>व्यर्थ</ref>
मैं आईना हूँ मुझे टूटने की आदत है

मैं क्या कहूँ के मुझे सब्र क्यूँ नहीं आता
मैं क्या करूँ के तुझे देखने की आदत है

तेरे नसीब में ऐ दिल सदा की महरूमी<ref>वंचितता</ref>
न वो सख़ी<ref>दानवीर</ref> न तुझे माँगने की आदत है

विसाल<ref>मिलन</ref> में भी वो ही है फ़िराक़<ref>जुदाई</ref> का आलम
कि उसको नींद मुझे रत-जगे की आदत है

ये मुश्क़िलें हों तो कैसे रास्ते तय हों
मैं ना-सुबूर<ref>ना-समझ</ref> उसे सोचने की आदत है

ये ख़ुद-अज़ियती कब तक "फ़राज़" तू भी उसे
न याद कर कि जिसे भूलने की आदत है

शब्दार्थ
<references/>