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और मेरी जानिब अपने हाथ बढ़ाती है
 
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सोच रही हूं
 
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उनको थामूं
 
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ज़ीना-ज़ीना सन्नाटों के तहख़ानों में उतरूं
 
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या अपने कमरे में ठहरूं
 
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चांद मेरी खिड़की पर दस्तक देता है
 
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08:55, 14 जून 2010 के समय का अवतरण

रात भी तन्हाई की पहली दहलीज़ पे है
और मेरी जानिब अपने हाथ बढ़ाती है
सोच रही हूं
उनको थामूं
ज़ीना-ज़ीना सन्नाटों के तहख़ानों में उतरूं
या अपने कमरे में ठहरूं
चांद मेरी खिड़की पर दस्तक देता है