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"ज़िंदगी की कहानी / जानकीवल्लभ शास्त्री" के अवतरणों में अंतर

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::ज़िंदगी की कहानी रही अनकही !
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        ज़िंदगी की कहानी रही अनकही !
::दिन गुज़रते रहे, साँस चलती रही !
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        दिन गुज़रते रहे, साँस चलती रही !
  
 
अर्थ क्या ? शब्द ही अनमने रह गए,
 
अर्थ क्या ? शब्द ही अनमने रह गए,
 
कोष से जो खिंचे तो तने रह गए,
 
कोष से जो खिंचे तो तने रह गए,
 
वेदना अश्रु-पानी बनी, बह गई,
 
वेदना अश्रु-पानी बनी, बह गई,
::धूप ढलती रही, छाँह छलती रही !
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        धूप ढलती रही, छाँह छलती रही !
  
 
बाँसुरी जब बजी कल्पना-कुंज में
 
बाँसुरी जब बजी कल्पना-कुंज में
 
चाँदनी थरथराई तिमिर पुंज में
 
चाँदनी थरथराई तिमिर पुंज में
 
पूछिए मत कि तब प्राण का क्या हुआ,
 
पूछिए मत कि तब प्राण का क्या हुआ,
::आग बुझती रही, आग जलती रही !
+
        आग बुझती रही, आग जलती रही !
  
 
जो जला सो जला, ख़ाक खोदे बला,
 
जो जला सो जला, ख़ाक खोदे बला,
 
मन न कुंदन बना, तन तपा, तन गला,
 
मन न कुंदन बना, तन तपा, तन गला,
 
कब झुका आसमाँ, कब रुका  कारवाँ,
 
कब झुका आसमाँ, कब रुका  कारवाँ,
::द्वंद्व चलता रहा पीर पलती रही !
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        द्वंद्व चलता रहा पीर पलती रही !
  
 
बात ईमान की या कहो मान की
 
बात ईमान की या कहो मान की
 
चाहता गान में मैं झलक प्राण की,
 
चाहता गान में मैं झलक प्राण की,
 
साज़ सजता नहीं, बीन बजती नहीं,
 
साज़ सजता नहीं, बीन बजती नहीं,
::उँगलियाँ तार पर यों मचलती रहीं !
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        उँगलियाँ तार पर यों मचलती रहीं !
  
 
और तो और वह भी न अपना बना,
 
और तो और वह भी न अपना बना,
 
आँख मूंदे रहा, वह न सपना बना !
 
आँख मूंदे रहा, वह न सपना बना !
 
चाँद मदहोश प्याला लिए व्योम का,
 
चाँद मदहोश प्याला लिए व्योम का,
::रात ढलती रही, रात ढलती रही !
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        रात ढलती रही, रात ढलती रही !
  
 
यह नहीं जानता मैं किनारा नहीं,
 
यह नहीं जानता मैं किनारा नहीं,
 
यह नहीं, थम गई वारिधारा कहीं !
 
यह नहीं, थम गई वारिधारा कहीं !
 
जुस्तजू में किसी मौज की, सिंधु के-
 
जुस्तजू में किसी मौज की, सिंधु के-
::थाहने की घड़ी किन्तु टलती रही !
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        थाहने की घड़ी किन्तु टलती रही !
 
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10:29, 20 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

  
        ज़िंदगी की कहानी रही अनकही !
        दिन गुज़रते रहे, साँस चलती रही !

अर्थ क्या ? शब्द ही अनमने रह गए,
कोष से जो खिंचे तो तने रह गए,
वेदना अश्रु-पानी बनी, बह गई,
        धूप ढलती रही, छाँह छलती रही !

बाँसुरी जब बजी कल्पना-कुंज में
चाँदनी थरथराई तिमिर पुंज में
पूछिए मत कि तब प्राण का क्या हुआ,
        आग बुझती रही, आग जलती रही !

जो जला सो जला, ख़ाक खोदे बला,
मन न कुंदन बना, तन तपा, तन गला,
कब झुका आसमाँ, कब रुका कारवाँ,
        द्वंद्व चलता रहा पीर पलती रही !

बात ईमान की या कहो मान की
चाहता गान में मैं झलक प्राण की,
साज़ सजता नहीं, बीन बजती नहीं,
        उँगलियाँ तार पर यों मचलती रहीं !

और तो और वह भी न अपना बना,
आँख मूंदे रहा, वह न सपना बना !
चाँद मदहोश प्याला लिए व्योम का,
        रात ढलती रही, रात ढलती रही !

यह नहीं जानता मैं किनारा नहीं,
यह नहीं, थम गई वारिधारा कहीं !
जुस्तजू में किसी मौज की, सिंधु के-
        थाहने की घड़ी किन्तु टलती रही !