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"खड़ी बोली / रघुवीर सहाय" के अवतरणों में अंतर

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भाषा की ऊष्मा से फूटते नहीं है शब्द
 
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भीगी पोटली में अब ।
भीगी पोटली म्रं अब ।
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कविता बनाकर मैं मोड़ कर रख देता रहा हूँ
 
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दो दिन में खोल कर पढ़ लेता रहा हूँ
कविता बनाकर मैं मोड़ कर रख देता रहा हूं
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आड़े-तिरछे अँखुए चिटख़ी दरारों में झाँकते मिले हैं ।
 
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दो दिन में खोल कर पढ़ लेता रहा हूं
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आड़े तिरछे अंखुए चिटख़ी दरारों में झांकते मिले हैं ।
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आज यह नहीं हुआ
 
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सावधान !
 
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क्या खड़ी बोली में अनजाना शब्द अब
 
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नहीं रहा
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जिसको परम्परा देती थी ?
 
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('कुछ पते कुछ चिट्ठियां' नामक कविता-संग्रह से )
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00:46, 8 मार्च 2010 के समय का अवतरण

भाषा की ऊष्मा से फूटते नहीं है शब्द
भीगी पोटली में अब ।
कविता बनाकर मैं मोड़ कर रख देता रहा हूँ
दो दिन में खोल कर पढ़ लेता रहा हूँ
आड़े-तिरछे अँखुए चिटख़ी दरारों में झाँकते मिले हैं ।
आज यह नहीं हुआ
सावधान !
क्या खड़ी बोली में अनजाना शब्द अब
नहीं रहा
जिसको परम्परा देती थी ?