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"राधिका विरह की बारह मासी / दयाराम" के अवतरणों में अंतर

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मुझे कहीं कुछ ना सुहाय रे, बालम बिना,
 
मुझे कहीं कुछ ना सुहाय रे, बालम बिना,
 
मोहे पलक कल्प सम लागे रे, कहूँ किसे ?
 
मोहे पलक कल्प सम लागे रे, कहूँ किसे ?
सखी रे मेरी ! बालमजी घर ना आये जी ।  
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सखी रे मेरी ! बालमजी घर ना आए जी ।  
  
 
पौष मास पियुजी परदेस रे, सखी मेरे,
 
पौष मास पियुजी परदेस रे, सखी मेरे,
 
मैं तो अकेली कैसे रहूँ रे इस ऋत में,
 
मैं तो अकेली कैसे रहूँ रे इस ऋत में,
 
देखो खिलता मेरा जोबन जलाए वेश रे
 
देखो खिलता मेरा जोबन जलाए वेश रे
सखी रे मेरी ! बालमजी घर ना आये जी ।  
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सखी रे मेरी ! बालमजी घर ना आए जी ।  
  
 
माघ में मन मिलने को अकुलाय रे अलबेले से
 
माघ में मन मिलने को अकुलाय रे अलबेले से

21:59, 4 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण

कार्तिक मास सखी ! मुझे छोड़ गये कंथ रे,
मैं तो देखूँ पियुजी का पल-पल पंथ रे,
विरह बढे़ गाते गुणग्रंथ रे ,राधा कहे ,
सखी रे मेरी ! बालमजी घर ना आए जी ।

अगहन मास सखी ! मंदिर खाने दौड़े रे !
मुझे कहीं कुछ ना सुहाय रे, बालम बिना,
मोहे पलक कल्प सम लागे रे, कहूँ किसे ?
सखी रे मेरी ! बालमजी घर ना आए जी ।

पौष मास पियुजी परदेस रे, सखी मेरे,
मैं तो अकेली कैसे रहूँ रे इस ऋत में,
देखो खिलता मेरा जोबन जलाए वेश रे
सखी रे मेरी ! बालमजी घर ना आए जी ।

माघ में मन मिलने को अकुलाय रे अलबेले से
ढाँकू,जलता कलेजा, दुःख किसी को ना कहा जाए रे;
मेरे दिन-रात रोते हुए जाए रे बालम बिना,
सखी रे मेरी ! बालमजी घर ना आए जी ।

फागुन अबीर गुलाल रंग में भीगे,केसर उड़े,
श्याम बिना सूनी पड़ी रे टोली, सहेली मेरी,
मेरे हियरा में प्रकटी रे होली बिरह की,
सखी रे मेरी ! बालमजी घर ना आए जी ।

चैत्र चंद्र-चंद्रिका खिली रे वृंदावन में,
बेल, वृक्ष, लता झूले रे, जमुनाजी में,
मेरा देखने का सुख गया रे, प्रीतम बिना
सखी रे मेरी ! बालमजी घर ना आए जी ।

बैसाख में सारा ब्रज सूना लागे रे बालम बिना,
मुझे विरह बाण उर में लागे रे ,कहूँ किसे ?
मेरा यह दुःख किसी से ना जाए रे,कृष्ण बिना
सखी रे मेरी ! बालमजी घर ना आए जी ।

जेठ मास ताप बड़ा लागे रे कलेजे में,
बालमजी ने सौतन की सुभागी रे, सुनती हूँ सखी !
हम सब ठहरे अभागे रे, नटवर बिना,
सखी रे मेरी ! बालमजी घर ना आए जी ।

असाढ़ मास में घन गरजे रे गगन में,कहूँ किसे ?
मोहन बिना मेरा मन धधके रे, कहूँ किसे ?
मैं पीड़ा झेलूँ, प्रभु को लाज न आये रे, वर्षा ऋतु !
सखी रे मेरी ! बालमजी घर ना आए जी ।

सावन मास झड़ियाँ बरसे रे सखी ! मेरा
मन बड़ा तरसे रे मिलने मोहन को
दसों दिशाएँ देखूँ, कहीं न दिखे दामोदरजी,
सखी रे मेरी ! बालमजी घर ना आए जी ।

भादो में बिजली दमके रे सखी ! देखो ना,
शोभा देखते आँखों से आँसू छलके रे, कलेजा जले,
मानो प्रभु का पितांबर झलके रे, ऐसा लगे,
सखी रे मेरी ! बालमजी घर ना आए जी ।

अश्विन मास तो रचने रास रे, प्रियतम आए ,
प्रिय ने पूरी की सब गोपियों की आस रे आनंद बढ़े;
जन एक दया कृष्ण का दास रे ,हाथ जोड़ कर गाए,
सखी रे मेरी ! बालमजी घर आए जी ।
                     

मूल गुजराती भाषा से अनुवाद : क्रान्ति कनाटे