भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दस दोहे (41-50) / चंद्रसिंह बिरकाली" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= चंद्रसिंह बिरकाली |संग्रह=बादली / चंद्रसिंह बि…)
 
छो ("दस दोहे (41-50) / चंद्रसिंह बिरकाली" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
[[Category: दोहा]]
 
[[Category: दोहा]]
 
<poem>
 
<poem>
 +
आज कळायण ऊमटी छौडे खूब हळूस ।
 +
सो-सो कोसां वरणसी करसी काळ विधूंस ।।41।।
  
 +
आज काली घटा उमड़ी है, हल्के बादल खूब बिखर रहे हैं । यह सौ-सौ कोसों तक बरसेगी और अकाल का विध्वंस करेगी।
  
आज कळायण ऊमटी छौडे खूब हळूस।
+
दिन में रात जगावती वादळियां बरसात ।
सो-सो कोसां वरणसी करसी काळ विधूंस।। 41।।
+
कदै अमावस सी करै घट पूनम री रात ।।42 ।।
  
आज काली घटा उमड़ी है, हल्के बादल खूब बिखर रहे है। यह सौ-सौ कोसों तक बरसेगी और अकाल का विध्वंस करेगी।
+
दिन को रात-सी बना देने वाली ये बरसात की बादलियाँ कभी-कभी पूर्णिमा की रात को भी घटा कर अमावस्या-सी कर देती हैं ।
  
दिन में रात जगावती वादळियां बरसात।
+
पी-पिहू बोल पपीहड़ां टी-टिहू टीटोडयांह ।
कदै अमावस सी करै घट पूनम री रात।। 42 ।।
+
पिहू-पिहू रव मोरियां हालै हूक जड़यांह ।।43।।
  
दिन को रात सी बना देने वाली ये बरसात की बादलियां कभी तो अमावस्या सी कर देती है और शिघ्र ही पूर्णिमा सी।
+
पपीहे की पी-पी, टिट्हरी की टी-टिहू और मोर की ‘पिहू-पिहू‘ ध्वनि सुनकर हृदय की जड़े हिल उठी है ।
  
पी-पिहू बोल पपीहड़ां टी-टिहू टीटोडयांह।
+
ज्यूं-ज्यूं मधरो गाजियो मनड़ो हुयो अधीर ।
पिहू-पिहू रव मोरियां हालै हूक जड़यांह।। 43।।
+
बीजल पळको मारतां चाली विडै़चीर ।।44।
  
पपीहे की पी-पी, टिट्भि की टी-टिहू और मोर की ‘पिहू-पिहू‘ ध्वनि सुनकर हृदय की जड़े हिल उठी है।
+
ज्यों-ज्यों मधुर गर्जन हुआ मन अधीर हो उठा, बिजली की चमक के साथ ही तो हृदय जैसे चिर गया ।
  
ज्यूं-ज्यूं मधरो गाजियो मनड़ो हुयो अधीर।
+
ऊंडा टोक उळांडिया चूंखै में चमकी ।
बीजल पळको मारतां चाली विडै़चीर।। 44।
+
जाण बूझतां, बीजळी, जोड़ी भल ढूंढी ।।45।।
  
ज्यों ज्यों मधुर गर्जन हुआ मन अधीर हो उठा, बीजली की चमक के साथ ही तो हृदय में चीर चल गई।
+
गहरे घने बादलों को छोड़कर रूई से सफ़ेद बादल में चमकने वाली बिजली, तूने जानबूझकर यह क्या जोड़ी ढूँढी ।
 
+
ऊंडा टोक उळांडिया चूंखै में चमकी।
+
जाण बूझतां, बीजळी, जोड़ी भल ढूंढी।। 45।।
+
 
+
गहरे घने बादलों को छोड़कर रूई से सफेद बादल में चमकने वाली बिजली, तुने जान बुझकर यह क्या जोड़ी ढूंढी।
+
 
   
 
   
  
खिण दक्खण खिण उतर दिस खिण चोगरदीचट्।
+
खिण दक्खण खिण उतर दिस खिण चोगरदीचट् ।
कुण जाणै किण खोज में बीज झपाझप झट्।। 46।।
+
कुण जाणै किण खोज में बीज झपाझप झट् ।।46।।
  
एक क्षण दक्षिण में, एक क्षण उत्तर में और फिर क्षण भर में ही चारो और। कौन जाने किस खोज में , बिजली इतनी तेजी से भागदौड़ कर रही है ?
+
एक क्षण दक्षिण में, एक क्षण उत्तर में और फिर क्षण भर में ही चारो ओर । कौन जाने किस खोज में, बिजली इतनी तेज़ी से भाग-दौड़ कर रही है ?
  
पळ-पळ में पळका करै आभै भर्यो उजास।
+
पळ-पळ में पळका करै आभै भर्यो उजास ।
जाणै प्रीतम-खोज में छाणै वीज अका्स।। 47।।
+
जाणै प्रीतम-खोज में छाणै वीज अका्स ।।47।।
  
पल-पल में चमकती हुई बिजली से सारा आकाश उद्भासित हो रहा है, मानो प्रियतम की खोज मे बिजली आकाश को छान रही है।
+
पल-पल में चमकती हुई बिजली से सारा आकाश उद्भासित हो रहा है, मानो प्रियतम की खोज मे बिजली आकाश को छान रही है ।
  
भूरी काळी बादली बीजळ रेख खिंचाय।
+
भूरी काळी बादली बीजळ रेख खिंचाय ।
जाण कसौटी ऊपरां सुवरण-रेख सुहाय।। 48।।
+
जाण कसौटी ऊपरां सुवरण-रेख सुहाय ।।48।।
  
भूरी और काली बादली में बिजली की रेखा सी खिंच गई है, मानो कसौटी पर सोने की रेख सुहा रही हो।
+
भूरी और काली बादली में बिजली की रेखा-सी खिंच गई है, मानो कसौटी पर सोने की रेख सुहा रही हो ।
  
जळ सो प्यारो जीव है कण सी कोमल काय।
+
जळ सो प्यारो जीव है कण सी कोमल काय ।
कुणसै कूणै बादळी, राखी वीजछिपाय।। 49।।
+
कुणसै कूणै बादळी, राखी वीजछिपाय ।।49।।
  
जल से बना तुम्हारा प्रिय जीवन है और धूलिकणों से बनी कोमल काया। बादली, तुमने कौनसे कोने में बिजली जैसी चीज छिपा कर रक्खा है।
+
जल से बना तुम्हारा प्रिय जीवन है और धूलिकणों से बनी कोमल काया । बादली, तुमने कौन से कोने में बिजली जैसी चीज़ को छिपा कर रक्खा है ।
  
सदा संजोण मोद में रह जळहर लिपटाय।
+
सदा संजोण मोद में रह जळहर लिपटाय ।
विरहरण झुरै बीजळी, जिवड़ो मती जळाय।। 50।।
+
विरहरण झुरै बीजळी, जिवड़ो मती जळाय ।।50।।
  
तु तो सदा संयोगिनी बन आनंद से जलधर के गले में लिपटी रहती है, पर विरहणी तो अकेली अमुझ रही है: इसका हृदय न जला।
+
तू तो सदा संयोगिनी बन आनंद से जलधर के गले में लिपटी रहती है, पर विरहणी तो अकेली अमुझ रही है: इसका हृदय न जला ।
 +
</poem>

22:02, 1 दिसम्बर 2010 के समय का अवतरण

आज कळायण ऊमटी छौडे खूब हळूस ।
सो-सो कोसां वरणसी करसी काळ विधूंस ।।41।।

आज काली घटा उमड़ी है, हल्के बादल खूब बिखर रहे हैं । यह सौ-सौ कोसों तक बरसेगी और अकाल का विध्वंस करेगी।

दिन में रात जगावती वादळियां बरसात ।
कदै अमावस सी करै घट पूनम री रात ।।42 ।।

दिन को रात-सी बना देने वाली ये बरसात की बादलियाँ कभी-कभी पूर्णिमा की रात को भी घटा कर अमावस्या-सी कर देती हैं ।

पी-पिहू बोल पपीहड़ां टी-टिहू टीटोडयांह ।
पिहू-पिहू रव मोरियां हालै हूक जड़यांह ।।43।।

पपीहे की पी-पी, टिट्हरी की टी-टिहू और मोर की ‘पिहू-पिहू‘ ध्वनि सुनकर हृदय की जड़े हिल उठी है ।

ज्यूं-ज्यूं मधरो गाजियो मनड़ो हुयो अधीर ।
बीजल पळको मारतां चाली विडै़चीर ।।44।

ज्यों-ज्यों मधुर गर्जन हुआ मन अधीर हो उठा, बिजली की चमक के साथ ही तो हृदय जैसे चिर गया ।

ऊंडा टोक उळांडिया चूंखै में चमकी ।
जाण बूझतां, बीजळी, जोड़ी भल ढूंढी ।।45।।

गहरे घने बादलों को छोड़कर रूई से सफ़ेद बादल में चमकने वाली बिजली, तूने जानबूझकर यह क्या जोड़ी ढूँढी ।
 

खिण दक्खण खिण उतर दिस खिण चोगरदीचट् ।
कुण जाणै किण खोज में बीज झपाझप झट् ।।46।।

एक क्षण दक्षिण में, एक क्षण उत्तर में और फिर क्षण भर में ही चारो ओर । कौन जाने किस खोज में, बिजली इतनी तेज़ी से भाग-दौड़ कर रही है ?

पळ-पळ में पळका करै आभै भर्यो उजास ।
जाणै प्रीतम-खोज में छाणै वीज अका्स ।।47।।

पल-पल में चमकती हुई बिजली से सारा आकाश उद्भासित हो रहा है, मानो प्रियतम की खोज मे बिजली आकाश को छान रही है ।

भूरी काळी बादली बीजळ रेख खिंचाय ।
जाण कसौटी ऊपरां सुवरण-रेख सुहाय ।।48।।

भूरी और काली बादली में बिजली की रेखा-सी खिंच गई है, मानो कसौटी पर सोने की रेख सुहा रही हो ।

जळ सो प्यारो जीव है कण सी कोमल काय ।
कुणसै कूणै बादळी, राखी वीजछिपाय ।।49।।

जल से बना तुम्हारा प्रिय जीवन है और धूलिकणों से बनी कोमल काया । बादली, तुमने कौन से कोने में बिजली जैसी चीज़ को छिपा कर रक्खा है ।

सदा संजोण मोद में रह जळहर लिपटाय ।
विरहरण झुरै बीजळी, जिवड़ो मती जळाय ।।50।।

तू तो सदा संयोगिनी बन आनंद से जलधर के गले में लिपटी रहती है, पर विरहणी तो अकेली अमुझ रही है: इसका हृदय न जला ।