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सुने हैं मैंने  
 
सुने हैं मैंने  

09:10, 21 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण



सुने हैं मैंने
अंधेरों की खानकाह के गीत
बहुत दिनों से उजालो को
कैद करने की
वो कोशिशों में लगे हैं तो क्या किया जाए
जो अपना अक्स तलक
देख ही नहीं सकते
वो दूसरे की छवि देखने को आतुर हैं
अजीब हैं ये अंधेरों की कोशिशें जानां
अन्धेरा खुद भी तो अपना वजूद रखता है
ये इन्किशाफ नहीं हो सका अभी उस पर
इसी के गम में हिरासां
न जाने कब से वो
अब एहतेजाज भी करने लगा उजाले का
ये एहतेजाज जरूरी नहीं
मगर जानां
उसे ये जा के बताए भी तो बताए कौन?
कि ये उजाला ही उसका बड़ा मुहाफ़िज़ है
सुकोद्ता है जो परों को शाम होते ही
गरज ये है कि अन्धेरा वजूद में आए
मगर अँधेरे की आँखें नहीं हुआ करतीं
ये बात
उसको भला कौन जा के समझाए !!!