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"इतिहास / शैलेन्द्र" के अवतरणों में अंतर

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1947 में रचित

01:28, 28 जून 2008 के समय का अवतरण


खेतों में, खलिहानों में,

मिल और कारखानों में,

चल-सागर की लहरों में

इस उपजाऊ धरती के

उत्तप्त गर्भ के अन्दर,

कीड़ों से रेंगा करते--

वे ख़ून पसीना करते !


वे अन्न अनाज उगाते,

वे ऊंचे महल उठाते,

कोयले लोहे सोने से

धरती पर स्वर्ग बसाते,

वे पेट सभी का भरते

पर ख़ुद भूखों मरते हैं !


वे ऊंचे महल उठाते

पर ख़ुद गन्दी गलियों में--

क्षत-विक्षत झोपड़ियों में--

आकाशी छत के नीचे

गर्मी सर्दी बरसातें,

काटते दिवस औ' रातें !


वे जैसे बनता जीते,

वे उकड़ू बैठा करते,

वे पैर न फैला पाते,

सिकुड़े-सिकुड़े सो जाते !


अनभिज्ञ बाँह के बल से,

अनजान संगठन बल से,

ये मूक, मूढ़, नत निर्धन,

दुनिया के बाज़ारों में,

कौड़ी कौड़ी को बिकते

पैरों से रौंदे जाते,

ये चींटी से पिस जाते !


ये रोग लिए आते हैं

बीवी को दे जाते हैं,

ये रोग लिए आते हैं

रोगी ही मर जाते हैं !


  • * * * * * *


फिर वे हैं जो महलों में

तारों से कुछ ही नीचे

सुख से निज आँखें मीचें

निज सपने सच्चे करते

मखमली बिस्तरों पर से,

टेलीफूनों के ऊपर

पैतृक पूँजी के बल से,

बिन मेहनत के पैसे से--

दुनिया को दोलित करते !


निज बहुत बड़ी पूँजी से,

छोटी पूँजियाँ हड़प कर

धीरे - धीरे समाज के

अगुआ ये ही बन जाते,

नेता ये ही बन जाते,

शासक ये ही बन जाते!


शासन की भूख न मिटती,

शोषण की भूख न मिटती,

ये भिन्न - भिन्न देशों में

छल के व्यापार सजाते

पूँजी के जाल बिछाते,

ये और और बढ़ जाते!


तब इन जैसा ही कोई

यदि टक्कर का मिल जाता,

औ' ताल ठोंक भिड़ जाता

तो महायुद्ध छिड़ जाता!

तब नाम धर्म का लेकर,

कर्तव्य कर्म का लेकर,

संस्कृति के मिट जने का,

मानवता के संकट का,

भोले जन को भय देकर

सबको युद्धातुर करते !


तो, बड़ी - बड़ी फ़ौजों में

नरजन हो जाते भरती

निर्धन हो जाते भरती

लाखों बेकार बिचारे

वर्दियाँ फ़ौज की धारे,

जल में, थल में, अम्बर में,

कुछ चाँदी के टुकड़ों पर

ये बिना मौत ख़ुद मरते!


मरते ये ही न अकेले

नभ से फेंके गोलों से,

टैंकों से औ' तोपों से !

विज्ञान विनिमित अनगिन

अनजाने हथियारों से--

भोले जन मारे जाते!


बूढ़े भी मारे जाते,

नारी भी मारी जाती,

दुधमुँहे गोद के शिशु भी

नि:शंक संहारे जाते !

होती न जहाँ बमबारी,

बचते न वहाँ के जन भी,

व्यापार मन्द पड़ जाता,

आवश्यक अन्न न मिलता,

धनवानों की बन आती

वे गेहूँ औ' चावल का

मन चाहा मूल्य चढ़ाते,

मौक़ा पाते ही लाला

थैलियाँ ख़ूब सरकाते !

तो महाकाल आ जाता,

भीषण अकाल पड़ जाता,

बेबस भूखे नंगों को

चुटकी में चट कर जाता !

जो बचते उन के तन में,

घुन सी लगती बीमारी,

गुपचुप जर्जर प्राणों को

खा जाती यह हत्यारी !


यों स्वार्थ - सिद्धी युद्धों में,

अनगिन अबोध पिस जाते,

पूँजीपतियों की बढ़ती

लालच की ज्वालाओं में

अपने तन-मन की, धन की,

अपने अमूल्य जीवन की,

ये आहुतियाँ दे जाते !


युद्धोपरान्त बदले में

ये बेचारे क्या पाते ?

फिर से दर - दर की ठोकर,

फिर से अकाल बीमारी,

फिर दुखदायी बेकारी !


पूँजीवादी सिस्टम को

क्षत - विक्षत मैशीनरी का

जंग लगे घिसे हिस्सों का

उपचार न कुछ हो पाता !

झुँझलाते असफलता पर,

अफ़सर निकृष्ट सरकारी !


चक्कर खाती धरती के

संग यह इतिहास पुराना

फिर - फिर चक्कर खाता है

फिर - फिर दुहराया जाता!


निर्धन के लाल लहू से

लिखा कठोर घटना-क्रम

यों ही आए जाएगा

जब तक पीड़ित धरती से

पूँजीवादी शासन का

नत निर्बल के शोषण का

यह दाग न धुल जाएगा,

तब तक ऎसा घटना-क्रम

यों ही आए - जाएगा

यों ही आए - जाएगा !


1947 में रचित