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"अधबनी कविताएँ / मनीष मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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अब नहीं है हमारे पास समय
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डायरी के फाड़ दिये गये पन्नों में भी
शब्दों से खेलने का।
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साँस ले रही होती हैं अधूरी कविताएँ
हमें बोलने हैं छोटे और सरल शब्द
+
फडफ़ड़ाते हैं कई शब्द और उपमायें।
और
+
विस्मृत नहीं हो पातीं सारी स्मृतियाँ
तय करनी है अपनी भाषा
+
सूख नहीं पाते सारे जलाशय
एक हथियार की तरह।
+
श4दों और प्रेम के बावजूद
हमें संवर्धित करने हैं शब्द
+
बन नहीं पातीं सारी कविताएँ।
अपनी रोजी-रोटी की तरह
+
डायरी के फटे पन्नों में
हमें लगातार गुजरना है
+
प्रतीक्षा करती हैं कविताएँ
संवाद स्थापत्य की प्रक्रियाओं से
+
संज्ञा की,
और बचाना है शब्दों को खारिज होने से।
+
प्रतीक की,
 +
या विशेषण की नहीं
 +
दु:ख की उस जमीन की
 +
जिस पर वो अ1सर पनपती हैं।
 
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18:39, 24 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण

डायरी के फाड़ दिये गये पन्नों में भी
साँस ले रही होती हैं अधूरी कविताएँ
फडफ़ड़ाते हैं कई शब्द और उपमायें।
विस्मृत नहीं हो पातीं सारी स्मृतियाँ
सूख नहीं पाते सारे जलाशय
श4दों और प्रेम के बावजूद
बन नहीं पातीं सारी कविताएँ।
डायरी के फटे पन्नों में
प्रतीक्षा करती हैं कविताएँ
संज्ञा की,
प्रतीक की,
या विशेषण की नहीं
दु:ख की उस जमीन की
जिस पर वो अ1सर पनपती हैं।