भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
सात रंगों के दिवस, सातो सुरों की रात,
साँज साँझ रच दूँगा गुलावों से, जबा जवा से प्रात।
पाँ पाँव धरने के लिए पथ में मसृण, रंगीन,भोर का दूँगा विछा बिछा हर रोज मेघ नवीन।
कंठ में मोती नहीं, उजली जुही की माल,
साँस में दूँगा मलय का पूर्ण भर उच्छ्वास।
चाँद पर लहरायेगी दोनागिनें दो नागिनें अनमोल,
चूमने को गाल दूँगा दो लटों को खोल।
वक्र धन्वा पर चढ़ा दू!ंगा दूँगा कुसुम के तीर,मत्त मौवनयौवन-नाग पर लावण्य की जंजीर।
कल्पना-जग में बनाऊँगा तुम्हारा वास,
और ही धरती जहाँ, कुछ और ही आकाश।
स्वप्न मेरे छानते फिरते निखेल निखिल संसार,
रोज लाते हैं नया कुछ रूप का शृंगार।
दूब के अंकुर कभी वौरे बौरे बकुल के फूल,पद्म के केशर कभीकुछ कभी कुछ केतकी की धूल।
साँझ की लाली वधू की लाज की उपमान,
चंद्रमा के अंक में सिमटी निशा के गान,
देखती अपलक अपरिचित पुरुर्वा पुरुरुवा की ओर,
उर्वशी की आँख की मद से लबालब कोर,
रवि-करों के स्पर्श से होकर विकल, कुछ ऊब,
कमलिनी का वारि में जाना कमर तक डूब।
ताल में तन, किन्तु, मन निसिभर निशिभर शशी में लीन,
कुमुदिनी की आँख आलस-युक्त, निद्रा-हीन।
निज रुधिर के ताप से जलने न दूँगा अंग,
तुम रहोगी साथ रहकर भि भी सदा निःसंग।
गीत में ढोता फिरूँगा, भाग्य अपना मान,
तुम जियोगी वेश्व विश्व में बन बाँसुरी की तान।
बाँसुरी की तान वह, जिसमें सजीव, अधीर,
गीत बनकर छा रही होंगी धरा-आकाश।
तुम बजोगी जवजब, बजेगी चूमने की चाह,
तुम बजोगी जब, बजेगी आग-जैसी आह।
कुछ तुम्हारी छवि हृदय पर आँक लेंगे;
गीत के भीतर तुम्हें कुछ शाँक झाँक लेंगें।
कंठ में जाकर बसोगी तुम किसी के।