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दोपहरी / शकुन्त माथुर

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तपे हुए नभ के नीचे
काली सड़कें तारकोल की
अंगारेअँगारे-सी जली पड़ी थींछांह छाँह जली थी पेड़ों की भी
पत्ते झुलस गए थे
नंगेनँगे-नंगे नँगे दीघर्काय, कंकालों कँकालों से वृक्ष खड़े थे
हों अकाल के ज्यों अवतार
एक अकेला तांगा ताँगा था दूरी परकोचवान की काली सी चाबूक चाबुक के बल परवह वो बढ़ता था
घूम-घूम ज्यों बलखाती थी सर्प सरीखी
बेदर्दी से पड़ती थी दुबले घोड़े की गरम
पीठ पर।
भाग रहा वह तारकोल की जली
अंगीठी अँगीठी के उपर से।
कभी एक ग्रामीण धरे कंधे कन्धे पर लाठी
सुख-दुख की मोटी सी गठरी
लिए पीठ पर
भारी जूते फटे हुए
जिन में से थी झांक झाँक रही गांव गाँवों की आत्माजि़ंदा ज़िन्दा रहने के कठिन जतन मेंपांव पाँव बढ़ाए आगे जाता।
घर की खपरैलों के नीचे
चिडि़यां चिड़ियाँ भी दो-चार चोंच खोलउड़ती - छिपती थींखुले हुए आंगन आँगन में फैली
कड़ी धूप से।
बड़े घरों के श्वान पालतू
बाथरूम में पानी की हल्की ठंड़क ठण्डक मेंनयन मूंद मून्द कर लेट गए थे।
कोई बाहर नहीं निकलता
सांझ साँझ समय तकथप्पड़ खाने गर्म् गर्म हवा केसंध्या सन्ध्या की भी चहल-पहल ओढ़े थीगहरे सूने रंग रँग की चादर
गरमी के मौसम में।
</poem>
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