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Kavita Kosh से
जीत के ख्वाब से बहलाते रहे हैं दिल को
हाँ हकीकत में हमें हार से डर लगता है
हाय महंगाई बता कैसे चलाये घर को
अब ग्राहक को ही बाज़ार से डर लगता हैं
वोह ज़माने को बता दे ना कहीं सच मेरा
ए कहानी तेरे किरदार से डर लगता है
इस ज़माने में भला किसपे भरोसा कर लें
अब तो अपनों के भी व्यहार से डर लगता है
आईने तेरी नज़र में वो मुहब्बत ना रही
ए सिया अब हमें सिंगार से डर लगता हैं
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