|सारणी=दोहावली / कबीर
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सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई ।
तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥
सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और -रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न कोई जाइ खुमार । <BR/>तिल इक घर मैं संचरेमैमता घूमत रहै, तौ सब नाहि तन कंचन होई की सार ॥ 301 302 ॥ <BR/><BR/>
कबीर हरि-रस पीया जाणियेयौं पिया, जे कबहुँ बाकी रही न जाइ खुमार थाकि । <BR/>मैमता घूमत रहैपाका कलस कुंभार का, नाहि तन की सार बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ 302 303 ॥ <BR/><BR/>
कबीर हरि-रस यौं पियाभाठी कलाल की, बाकी रही न थाकि बहुतक बैठे आई । <BR/>पाका कलस कुंभार कासिर सौंपे सोई पिवै, बहुरि नहीं तौ पिया न चढ़ई चाकि जाई ॥ 303 304 ॥ <BR/><BR/>
कबीर भाठी कलाल कीत्रिक्षणा सींची ना बुझै, बहुतक बैठे आई दिन दिन बधती जाइ । <BR/>सिर सौंपे सोई पिवैजवासा के रुष ज्यूं, नहीं तौ पिया न जाई घण मेहां कुमिलाइ ॥ 304 305 ॥ <BR/><BR/>
त्रिक्षणा सींची ना बुझैकबीर सो घन संचिये, दिन दिन बधती जाइ जो आगे कू होइ । <BR/>जवासा के रुष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥ 305 306 ॥ <BR/><BR/>
कबीर सो घन संचियेमाया मोहिनी, जो आगे कू होइ जैसी मीठी खांड़ । <BR/>सीस चढ़ाये गाठ सतगुरु की जात न देख्या कोइ कृपा भई, नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥ कबीर माया पापरगी, फंध ले बैठी हाटि । सब जग तौ फंधै पड्या, गया कबीर काटि ॥ 306 308 ॥ <BR/><BR/>
कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड़ । <BR/>सतगुरु जग की कृपा भईजो कहै, नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥ <BR/><BR/>कबीर माया पापरगी, फंध ले बैठी हाटि भौ जलि बूड़ै दास । <BR/>सब जग तौ फंधै पड्यापारब्रह्म पति छांड़ि करि, गया कबीर काटि करै मानि की आस ॥ 308 309 ॥ <BR/><BR/>
कबीर जग की जो कहैबुगली नीर बिटालिया, भौ जलि बूड़ै दास सायर चढ़या कलंक । <BR/>पारब्रह्म पति छांड़ि करिऔर पखेरू पी गये, करै मानि की आस हंस न बौवे चंच ॥ 309 310 ॥ <BR/><BR/>
बुगली नीर बिटालियाकबीर इस संसार का, सायर चढ़या कलंक झूठा माया मोह । <BR/>और पखेरू पी गयेजिहि धारि जिता बाधावणा, हंस न बौवे चंच तिहीं तिता अंदोह ॥ 310 311 ॥ <BR/><BR/>
कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह तजी तौ क्या भया, मानि तजि नही जाइ । <BR/>जिहि धारि जिता बाधावणामानि बड़े मुनियर मिले, तिहीं तिता अंदोह मानि सबनि को खाइ ॥ 311 312 ॥ <BR/><BR/>
माया तजी तौ क्या भयाकरता दीसै कीरतन, मानि तजि नही जाइ ऊँचा करि करि तुंड । <BR/>मानि बड़े मुनियर मिलेजाने-बूझै कुछ नहीं, मानि सबनि को खाइ यौं ही अंधा रुंड ॥ 312 313 ॥ <BR/><BR/>
करता दीसै कीरतन, ऊँचा कबीर पढ़ियो दूरि करि करि तुंड , पुस्तक देइ बहाइ । <BR/>जाने-बूझै कुछ नहींबावन आषिर सोधि करि, यौं ही अंधा रुंड ररै मर्मे चित्त लाइ ॥ 313 314 ॥ <BR/><BR/>
कबीर पढ़ियो दूरि करिमैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलो, पुस्तक देइ बहाइ पाढ़िबा थे भलो जोग । <BR/>बावन आषिर सोधि राम-नाम सूं प्रीती करि, ररै मर्मे चित्त लाइ भल भल नींयो लोग ॥ 314 315 ॥ <BR/><BR/>
मैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलोपद गाएं मन हरषियां, पाढ़िबा थे भलो जोग साषी कह्मां अनंद । <BR/>राम-नाम सूं प्रीती करिसो तत नांव न जाणियां, भल भल नींयो लोग गल में पड़िया फंद ॥ 315 316 ॥ <BR/><BR/>
पद गाएं मन हरषियांजैसी मुख तै नीकसै, साषी कह्मां अनंद तैसी चाले चाल । <BR/>सो तत नांव न जाणियांपार ब्रह्म नेड़ा रहै, गल पल में पड़िया फंद करै निहाल ॥ 316 317 ॥ <BR/><BR/>
जैसी मुख तै नीकसैकाजी-मुल्ला भ्रमियां, तैसी चाले चाल चल्या युनीं कै साथ । <BR/>पार ब्रह्म नेड़ा रहैदिल थे दीन बिसारियां, पल में करै निहाल करद लई जब हाथ ॥ 317 318 ॥ <BR/><BR/>
काजीप्रेम-मुल्ला भ्रमियांप्रिति का चालना, चल्या युनीं कै साथ पहिरि कबीरा नाच । <BR/>दिल थे दीन बिसारियांतन-मन तापर वारहुँ, करद लई जब हाथ जो कोइ बौलौ सांच ॥ 318 319 ॥ <BR/><BR/>
प्रेम-प्रिति का चालनासांच बराबर तप नहीं, पहिरि कबीरा नाच झूठ बराबर पाप । <BR/>तन-मन तापर वारहुँ, जो कोइ बौलौ जाके हिरदै में सांच है, ताके हिरदै हरि आप ॥ 319 320 ॥ <BR/><BR/>
सांच बराबर तप नहींखूब खांड है खीचड़ी, झूठ बराबर पाप माहि ष्डयाँ टुक कून । <BR/>जाके हिरदै में सांच हैदेख पराई चूपड़ी, ताके हिरदै हरि आप जी ललचावे कौन ॥ 320 321 ॥ <BR/><BR/>
खूब खांड है खीचड़ीसाईं सेती चोरियाँ, माहि ष्डयाँ टुक कून चोरा सेती गुझ । <BR/>देख पराई चूपड़ीजाणैंगा रे जीवएगा, जी ललचावे कौन मार पड़ैगी तुझ ॥ 321 322 ॥ <BR/><BR/>
साईं सेती चोरियाँतीरथ तो सब बेलड़ी, चोरा सेती गुझ सब जग मेल्या छाय । <BR/>जाणैंगा रे जीवएगाकबीर मूल निकंदिया, मार पड़ैगी तुझ कौण हलाहल खाय ॥ 322 323 ॥ <BR/><BR/>
तीरथ तो सब बेलड़ीजप-तप दीसैं थोथरा, सब जग मेल्या छाय तीरथ व्रत बेसास । <BR/>कबीर मूल निकंदियासूवै सैंबल सेविया, कौण हलाहल खाय यौ जग चल्या निरास ॥ 323 324 ॥ <BR/><BR/>
जप-तप दीसैं थोथराजेती देखौ आत्म, तीरथ व्रत बेसास तेता सालिगराम । <BR/>सूवै सैंबल सेवियाराधू प्रतषि देव है, यौ जग चल्या निरास नहीं पाथ सूँ काम ॥ 324 325 ॥ <BR/><BR/>
जेती देखौ आत्मकबीर दुनिया देहुरै, तेता सालिगराम सीत नवांवरग जाइ । <BR/>राधू प्रतषि देव हैहिरदा भीतर हरि बसै, नहीं पाथ सूँ काम तू ताहि सौ ल्यो लाइ ॥ 325 326 ॥ <BR/><BR/>
कबीर दुनिया देहुरैमन मथुरा दिल द्वारिका, सीत नवांवरग जाइ काया कासी जाणि । <BR/>हिरदा भीतर हरि बसैदसवां द्वारा देहुरा, तू ताहि सौ ल्यो लाइ तामै जोति पिछिरिग ॥ 326 327 ॥ <BR/><BR/>
मन मथुरा दिल द्वारिकामेरे संगी दोइ जरग, काया कासी जाणि एक वैष्णौ एक राम । <BR/>दसवां द्वारा देहुरावो है दाता मुक्ति का, तामै जोति पिछिरिग वो सुमिरावै नाम ॥ 327 328 ॥ <BR/><BR/>
मेरे संगी दोइ जरगमथुरा जाउ भावे द्वारिका, एक वैष्णौ एक राम भावै जाउ जगनाथ । <BR/>वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम साथ-संगति हरि-भागति बिन-कछु न आवै हाथ ॥ 328 329 ॥ <BR/><BR/>
मथुरा जाउ भावे द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ । <BR/>साथ-संगति हरि-भागति बिन-कछु न आवै हाथ ॥ 329 ॥ <BR/><BR/>कबीर संगति साधु की, बेगि करीजै जाइ । <BR/>दुर्मति दूरि बंबाइसी, देसी सुमति बताइ ॥ 330 ॥ <BR/><BR/>
उज्जवल देखि न धीजिये, वग ज्यूं माडै ध्यान । <BR/>धीर बौठि चपेटसी, यूँ ले बूडै ग्यान ॥ 331 ॥ <BR/><BR/>
जेता मीठा बोलरगा, तेता साधन जारिग । <BR/>पहली था दिखाइ करि, उडै देसी आरिग ॥ 332 ॥ <BR/><BR/>
जानि बूझि सांचहिं तर्जे, करै झूठ सूँ नेहु । <BR/>ताकि संगति राम जी, सुपिने ही पिनि देहु ॥ 333 ॥ <BR/><BR/>
कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै । <BR/>नहिंतर बेगि उठाइ, नित का गंजर को सहै ॥ 334 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा बन-बन मे फिरा, कारणि आपणै राम । <BR/>राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सवेरे काम ॥ 335 ॥ <BR/><BR/>
कबीर मन पंषो भया, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय । <BR/>जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ ॥ 336 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा खाई कोट कि, पानी पिवै न कोई । <BR/>जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ ॥ 337 ॥ <BR/><BR/>
माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाई । <BR/>
ताली पीटै सिरि घुनै, मीठै बोई माइ ॥ 338 ॥
मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ । <BR/>कदली-सीप-भुजगं मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 339 ॥ <BR/><BR/>
हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत । <BR/>ते णर कदे न नीपजौ, ज्यूँ कालर का खेत ॥ 340 ॥ <BR/><BR/>काजल केरी कोठड़ी, तैसी यहु संसार । <BR/>बलिहारी ता दास की, पैसिर निकसण हार ॥ 341 ॥ <BR/><BR/>
पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण । <BR/>पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीर कीन्ह ॥ 342 ॥ <BR/><BR/>
आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति । <BR/>जोगी फेरी फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति ॥ 343 ॥ <BR/><BR/>
कबीर मारू मन कूँ, टूक-टूक है जाइ । <BR/>विव की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ ॥ 353 ॥ <BR/><BR/>
कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग । <BR/>कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग ॥ 354 ॥ <BR/><BR/>
मैं मन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि । <BR/>जबहीं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि ॥ 355 ॥ <BR/><BR/>
मनह मनोरथ छाँड़िये, तेरा किया न होइ । <BR/>पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ ॥ 356 ॥ <BR/><BR/>
एक दिन ऐसा होएगा, सब सूँ पड़े बिछोइ । <BR/>राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होइ ॥ 357 ॥ <BR/><BR/>
कबीर नौबत आपणी, दिन-दस लेहू बजाइ । <BR/>ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥ 358 ॥ <BR/><BR/>
जिनके नौबति बाजती, भैंगल बंधते बारि । <BR/>एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि ॥ 359 ॥ <BR/><BR/>
कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ । <BR/>इत के भये न उत के, चलित भूल गँवाइ ॥ 360 ॥ <BR/><BR/>बिन रखवाले बाहिरा, चिड़िया खाया खेत । <BR/>आधा-परधा ऊबरै, चेति सकै तो चैति ॥ 361 ॥ <BR/><BR/>
कबीर कहा गरबियौबिन रखवाले बाहिरा, काल कहै कर केस चिड़िया खाया खेत । <BR/>ना जाणै कहाँ मारिसीआधा-परधा ऊबरै, कै धरि के परदेस चेति सकै तो चैति ॥ 362 361 ॥ <BR/><BR/>
नान्हा कातौ चित्त देकबीर कहा गरबियौ, महँगे मोल बिलाइ काल कहै कर केस । <BR/>गाहक राजा राम हैना जाणै कहाँ मारिसी, और न नेडा आइ कै धरि के परदेस ॥ 363 362 ॥ <BR/><BR/>
उजला कपड़ा पहिरि करिनान्हा कातौ चित्त दे, पान सुपारी खाहिं महँगे मोल बिलाइ । <BR/>एकै हरि के नाव बिनगाहक राजा राम है, बाँधे जमपुरि जाहिं और न नेडा आइ ॥ 364 363 ॥ <BR/><BR/>
कबीर केवल राम कीउजला कपड़ा पहिरि करि, तू जिनि छाँड़ै ओट पान सुपारी खाहिं । <BR/>घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँएकै हरि के नाव बिन, घणी सहै सिर चोट बाँधे जमपुरि जाहिं ॥ 365 364 ॥ <BR/><BR/>
मैं-मैं बड़ी बलाइ है सकै तो निकसौ भाजि कबीर केवल राम की, तू जिनि छाँड़ै ओट । <BR/>कब लग राखौ हे सखीघण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँ, रुई लपेटी आगि घणी सहै सिर चोट ॥ 366 365 ॥ <BR/><BR/>
कबीर माला मन की, और संसारी भेष मैं-मैं बड़ी बलाइ है सकै तो निकसौ भाजि । <BR/>माला पहरयां हरि मिलैकब लग राखौ हे सखी, तौ अरहट कै गलि देखि रुई लपेटी आगि ॥ 367 366 ॥ <BR/><BR/>
कबीर माला पहिरै मनभुषीमन की, ताथै कछू न होइ और संसारी भेष । <BR/>मन माला को फैरतापहरयां हरि मिलै, जग उजियारा सोइ तौ अरहट कै गलि देखि ॥ 368 367 ॥ <BR/><BR/>
कैसो कहा बिगाड़ियामाला पहिरै मनभुषी, जो मुंडै सौ बार ताथै कछू न होइ । <BR/>मन माला को काहे न मूंडियेफैरता, जामे विषम-विकार जग उजियारा सोइ ॥ 369 368 ॥ <BR/><BR/>
माला पहरयां कुछ नहींकैसो कहा बिगाड़िया, भगति न आई हाथ जो मुंडै सौ बार । <BR/>माथौ मूँछ मुंडाइ करिमन को काहे न मूंडिये, चल्या जगत् के साथ जामे विषम-विकार ॥ 370 369 ॥ <BR/><BR/>
बैसनो भया तौ क्या भयामाला पहरयां कुछ नहीं, बूझा नहीं बबेक भगति न आई हाथ । <BR/>छापा तिलक बनाइ माथौ मूँछ मुंडाइ करि, दगहया अनेक ॥ 371 ॥ <BR/><BR/>स्वाँग पहरि सो रहा भया, खाया-पीया खूंदि । <BR/>जिहि तेरी साधु नीकले, सो तो मेल्ही मूंदि चल्या जगत् के साथ ॥ 372 370 ॥ <BR/><BR/>
चतुराई हरि ना मिलैबैसनो भया तौ क्या भया, ए बातां की बात बूझा नहीं बबेक । <BR/>एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ छापा तिलक बनाइ करि, दगहया अनेक ॥ 373 371 ॥ <BR/><BR/>
एष ले बूढ़ी पृथमीस्वाँग पहरि सो रहा भया, झूठे कुल की लार खाया-पीया खूंदि । <BR/>अलष बिसारयो भेष मेंजिहि तेरी साधु नीकले, बूड़े काली धार सो तो मेल्ही मूंदि ॥ 374 372 ॥ <BR/><BR/>
कबीर चतुराई हरि का भावताना मिलै, झीणां पंजर ए बातां की बात । <BR/>रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मांस एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ ॥ 375 373 ॥ <BR/><BR/>
सिंहों के लेहँड नहींएष ले बूढ़ी पृथमी, हंसों झूठे कुल की नहीं पाँत लार । <BR/>लालों की नहि बोरियाँअलष बिसारयो भेष में, साध न चलै जमात बूड़े काली धार ॥ 376 374 ॥ <BR/><BR/>
गाँठी दाम न बांधईकबीर हरि का भावता, नहिं नारी सों नेह झीणां पंजर । <BR/>कह कबीर ता साध कीरैणि न आवै नींदड़ी, हम चरनन की खेह अंगि न चढ़ई मांस ॥ 377 375 ॥ <BR/><BR/>
निरबैरी निहकामतासिंहों के लेहँड नहीं, साईं सेती नेह हंसों की नहीं पाँत । <BR/>विषिया सूं न्यारा रहैलालों की नहि बोरियाँ, संतनि का अंग सह साध न चलै जमात ॥ 378 376 ॥ <BR/><BR/>
जिहिं हिरदै हरि आइयागाँठी दाम न बांधई, सो क्यूं छाना होइ नहिं नारी सों नेह । <BR/>जतन-जतन करि दाबियेकह कबीर ता साध की, तऊ उजाला सोइ हम चरनन की खेह ॥ 379 377 ॥ <BR/><BR/>
काम मिलावे राम कूंनिरबैरी निहकामता, जे कोई जाणै राखि साईं सेती नेह । <BR/>कबीर बिचारा क्या कहैविषिया सूं न्यारा रहै, जाकि सुख्देव बोले साख संतनि का अंग सह ॥ 380 378 ॥ <BR/><BR/>
राम वियोगी तन बिकलजिहिं हिरदै हरि आइया, ताहि न चीन्हे कोई सो क्यूं छाना होइ । <BR/>तंबोली के पान ज्यूं, दिनजतन-दिन पीला होई जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ ॥ 381 379 ॥ <BR/><BR/>
पावक रूपी काम मिलावे राम हैकूं, घटि-घटि रह्या समाइ जे कोई जाणै राखि । <BR/>चित चकमक लागै नहींकबीर बिचारा क्या कहै, ताथै घूवाँ है-है जाइ जाकि सुख्देव बोले साख ॥ 382 380 ॥ <BR/><BR/>
फाटै दीदै में फिरौंराम वियोगी तन बिकल, नजिर ताहि न आवै चीन्हे कोई । <BR/>जिहि घटि मेरा साँइयाँतंबोली के पान ज्यूं, सो क्यूं छाना दिन-दिन पीला होई ॥ 383 381 ॥ <BR/><BR/>
हैवर गैवर सघन धनपावक रूपी राम है, छत्रपती की नारि घटि-घटि रह्या समाइ । <BR/>तास पटेतर ना तुलैचित चकमक लागै नहीं, हरिजन की पनिहारि ताथै घूवाँ है-है जाइ ॥ 384 382 ॥ <BR/><BR/>
जिहिं धरि साध न पूजिफाटै दीदै में फिरौं, हरि की सेवा नाहिं नजिर न आवै कोई । <BR/>ते घर भड़धट सारषेजिहि घटि मेरा साँइयाँ, भूत बसै तिन माहिं सो क्यूं छाना होई ॥ 385 383 ॥ <BR/><BR/>
कबीर कुल तौ सोभलाहैवर गैवर सघन धन, जिहि कुल उपजै दास छत्रपती की नारि । <BR/>जिहिं कुल दास न उपजैतास पटेतर ना तुलै, सो कुल आक-पलास हरिजन की पनिहारि ॥ 386 384 ॥ <BR/><BR/>
क्यूं नृप-नारी नींदियेजिहिं धरि साध न पूजि, क्यूं पनिहारी कौ मान हरि की सेवा नाहिं । <BR/>वा माँग सँवारे पील कौते घर भड़धट सारषे, या नित उठि सुमिरैराम भूत बसै तिन माहिं ॥ 387 385 ॥ <BR/><BR/>
काबा फिर कासी भयाकबीर कुल तौ सोभला, राम भया रे रहीम जिहि कुल उपजै दास । <BR/>मोट चून मैदा भयाजिहिं कुल दास न उपजै, बैठि कबीरा जीम सो कुल आक-पलास ॥ 388 386 ॥ <BR/><BR/>
दुखिया भूखा दुख कौंक्यूं नृप-नारी नींदिये, सुखिया सुख कौं झूरि क्यूं पनिहारी कौ मान । <BR/>सदा अजंदी राम केवा माँग सँवारे पील कौ, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि या नित उठि सुमिरैराम ॥ 389 387 ॥ <BR/><BR/>
कबीर दुबिधा दूरि करिकाबा फिर कासी भया, एक अंग है लागि राम भया रे रहीम । <BR/>यहु सीतल बहु तपति हैमोट चून मैदा भया, दोऊ कहिये आगि बैठि कबीरा जीम ॥ 390 388 ॥ <BR/><BR/>
कबीर का तू चिंतवैदुखिया भूखा दुख कौं, का तेरा च्यंत्या होइ सुखिया सुख कौं झूरि । <BR/>अण्च्यंत्या हरिजी करैसदा अजंदी राम के, जो तोहि च्यंत न होइ जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि ॥ 391 389 ॥ <BR/><BR/>
भूखा भूखा क्या करैंकबीर दुबिधा दूरि करि, कहा सुनावै लोग एक अंग है लागि । <BR/>भांडा घड़ि जिनि मुख यिकायहु सीतल बहु तपति है, सोई पूरण जोग दोऊ कहिये आगि ॥ 392 390 ॥ <BR/><BR/>
रचनाहार कूं चीन्हि लैकबीर का तू चिंतवै, खैबे कूं कहा रोइ का तेरा च्यंत्या होइ । <BR/>दिल मंदि मैं पैसि करिअण्च्यंत्या हरिजी करै, ताणि पछेवड़ा सोइ जो तोहि च्यंत न होइ ॥ 393 391 ॥ <BR/><BR/>
कबीर सब जग हंडियाभूखा भूखा क्या करैं, मांदल कंधि चढ़ाइ कहा सुनावै लोग । <BR/>हरि बिन अपना कोउ नहींभांडा घड़ि जिनि मुख यिका, देखे ठोकि बनाइ सोई पूरण जोग ॥ 394 392 ॥ <BR/><BR/>
मांगण मरण समान हैरचनाहार कूं चीन्हि लै, बिरता बंचै कोई खैबे कूं कहा रोइ । <BR/>कहै कबीर रघुनाथ सूंदिल मंदि मैं पैसि करि, मति रे मंगावे मोहि ताणि पछेवड़ा सोइ ॥ 395 393 ॥ <BR/><BR/>
मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ । <BR/>ए सबहीं अहला गयाहरि बिन अपना कोउ नहीं, जबही कह्या कुछ देह देखे ठोकि बनाइ ॥ 396 394 ॥ <BR/><BR/>
संत न बांधै गाठड़ीमांगण मरण समान है, पेट समाता-तेइ बिरता बंचै कोई । <BR/>साईं कहै कबीर रघुनाथ सूं सनमुख रहै, जहाँ माँगे तहां देइ मति रे मंगावे मोहि ॥ 397 395 ॥ <BR/><BR/>
कबीर संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह । <BR/>काम-क्रोध सूं झूझणाए सबहीं अहला गया, चौडै मांड्या खेत जबही कह्या कुछ देह ॥ 398 396 ॥ <BR/><BR/>
कबीर सोई सूरिमासंत न बांधै गाठड़ी, मन सूँ मांडै झूझ पेट समाता-तेइ । <BR/>पंच पयादा पाड़ि लेसाईं सूं सनमुख रहै, दूरि करै सब दूज जहाँ माँगे तहां देइ ॥ 399 397 ॥ <BR/><BR/>
कबीर संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत । काम-क्रोध सूं झूझणा, चौडै मांड्या खेत ॥ 398 ॥ कबीर सोई सूरिमा, मन सूँ मांडै झूझ । पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज ॥ 399 ॥ जिस मरनै यैं जग डरै, सो मेरे आनन्द । <BR/>कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद ॥ 400 ॥ <BR/><BR/>
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