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{{KKRachna
|रचनाकार=शकील बँदायूनीबदायूँनी|संग्रह=}} {{KKCatGhazal}}<poem> ग़म-ए-आशिक़ी से कह दो राह-ए-आम तक न पहुँचे मुझे ख़ौफ़ है ये तोहमत मेरे नाम तक न पहुँचे
ग़म-ए-आशिक़ी मैं नज़र से कह दो राहपी रहा था तो ये दिल ने बद-ए-आम तक न पहुँचे <br>दुआ दी मुझे ख़ौफ़ है ये तोहमत मेरे नाम तेरा हाथ ज़िन्दगी भर कभी जाम तक न पहुँचे <br><br>
मैं नई सुबह पर नज़र से पी रहा था तो है मगर आह ये दिल ने बद-दुआ दी <br>भी डर है तेरा हाथ ज़िन्दगी भर कभी जाम ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे <br><br>
नई सुबह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है <br>वो नवा-ए-मुज़महिल क्या न हो जिस में दिल की धड़कन ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम वो सदा-ए-अहले-दिल क्या जो अवाम तक न पहुँचे <br><br>
वो नवा-ए-मुज़महिल क्या न हो जिस में उन्हें अपने दिल की धड़कन <br>ख़बरें मेरे दिल से मिल रही हैं वो सदा-ए-अहले-दिल क्या मैं जो अवाम उनसे रूठ जाऊँ तो पयाम तक न पहुँचे <br><br>
उन्हें अपने दिल की ख़बरें मेरे दिल से मिल रही हैं <br>ये अदा-ए-बेनिआज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारक मैं जो उनसे रूठ जाऊँ तो पयाम मगर ऐसी बेरुख़ी क्या के सलाम तक न पहुँचे <br><br>
ये अदाजो नक़ाब-ए-बेनिआज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारक <br>रुख़ उठा दी तो ये क़ैद भी लगा दी मगर ऐसी बेरुख़ी क्या के सलाम उठे हर निगाह लेकिन कोई बाम तक न पहुँचे <br><br>
जो नक़ाब-ए-रुख़ उठा दी तो ये क़ैद भी लगा दी <br>उठे हर निगाह लेकिन कोई बाम तक न पहुँचे <br><br> वही इक ख़मोश नग़्मा है "शकील" जान-ए-हस्ती <br>जो ज़ुबाँ तक न आये जो क़लाम तक न पहुँचे <br><br/poem>
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