भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
|संग्रह=दुष्चक्र में सृष्टा / वीरेन डंगवाल
}}
 </poem>
(फिर फिर निराला को)
 
'''1.
 
स्टेशन छोटा था, और अलमस्त
 
आवाजाही से अविचलित एक बूढा बन्दर धूप तापता था
 
अकेला
 
प्लेटफार्म नंबर दो पर।
 
चिलम पी रहा एक रिक्शावाला, एक बाबा के साथ।
 
बाबा संत न था
 
ज्ञानी था और गरीब।
 
रिक्शेवाले की तरह।
 
दोपहर की अजान उठी।
 
लाउडस्पीकर पर एक करुण प्रार्थना
 
किसी को भी ऐतराज़ न हुआ।
 
सरयू दूर थी यहाँ से अभी,
 
दूर थी उनकी अयोध्या।
 
 
'''2.
 
टेम्पो
 
खच्च भीड़
 
संकरी गलियाँ
 
घाटों पर तख्त ही तख्त
 
कंघी, जूते और झंडे
 
सरयू का पानी
 
देह को दबाता
 
हलकी रजाई का सुखद बोझ,
 
चारों और स्नानार्थी
 
मंगते और पण्डे।
 
सब कुछ था पूर्ववत अयोध्या में
 
बस उत्सव थोडा कम
 
थोडा ज्यादा वीतराग,
 
मुंडे शीश तीर्थंकर सेकते बाटी अपनी
 
तीन ईंटों का चूल्हा कर
 
जैसे तैसे धौंक आग।
 
फिर भी क्यों लगता था बार बार
 
आता हो जैसे, आता हो जैसे
 
किसी घायल हत्-कार्य धनुर्धारी का
 
भिंचा-भिंचा विकल रुदन।
 
'''3.
 
लेकिन
 
वह एक और मन रहा राम का
 
जो
 
न थका।
 
जो दैन्यहीन, जो विनयहीन,
 
संशय-विरहित, करुणा-पूरित, उर्वर धरा सा
 
सृजनशील, संकल्पवान
 
जानकी प्रिय का प्रेम भरे जिसमें उजास
 
अन्यायक्षुब्ध कोटिशः जनों का एक भाव
 
जनपीड़ा-जनित प्रचंड क्रोध
 
भर देता जिस में शक्ति एक
 
जागरित सतत ज्योतिर्विवेक।
 
वह एक और मन रहा राम का
 
जो न थका।
 
इसीलिए रौंदी जा कर भी
 
मरी नहीं हमारी अयोध्या।
 
इसीलिए हे महाकवि, टोहता फिरता हूँ मैं इस
 
अँधेरे में
तेरे पगचिह्न।
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits