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{{KKRachna
|रचनाकार=मजाज़ लखनवी
|संग्रह=आहंग
}}
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !<br>
राज सिंहासन डाँवाडोल!<br><br>
बादल, बिजली, रैन अँधियारीअंधियारी, दुख की मारी परजा सारी<br>बूढ़ेबूढ़े़, बच्चे सब दुखिया हैं, दुखिया नर हैं, दुखिया नारी<br>
बस्ती-बस्ती लूट मची है, सब बनिये हैं सब व्यापारी<br>
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !<br><br>
कलजुग में जग के रखवाले चाँदी चांदी वाले सोने वाले,<br>
देसी हों या परदेसी हों, नीले पीले गोरे काले<br>
मक्खी भुनगे भिन-भिन करते ढूँढे ढूंढे हैं मकड़ी के जाले,<br>
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !<br><br>
क्या अफरंगी, क्या तातारी, आंख आँख बची और बरछी मारी!<br>
कब तक जनता की बेचैनी, कब तक जनता की बेजारी,<br>
कब तक सरमाए के धंदे, कब तक यह सरमायादारी,<br>
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !<br><br>
नामी और मशहूर नहीं हम, लेकिन क्या मजदूर मज़दूर नहीं हम<br>धोखा और मजदूरों मज़दूरों को दें, ऐसे तो मजबूर मज़बूर नहीं हम,<br>मंजिल मंज़िल अपने पाँव के नीचे, मंजिल मंज़िल से अब दूर नहीं हम,<br>
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !<br><br>
बोल कि तेरी खिदमत की है, बोल कि तेरा काम किया है,<br>
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