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|रचनाकार=भगवतीचरण वर्मा
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कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें।
कुछ सुन लेंजीवन-सरिता की लहर-लहर, कुछ अपनी कह लें ।<br><br>मिटने को बनती यहाँ प्रियेसंयोग क्षणिक, फिर क्या जानेहम कहाँ और तुम कहाँ प्रिये।
जीवनपल-सरिता की लहरभर तो साथ-लहरसाथ बह लें,<br>मिटने को बनती यहाँ प्रिये<br>संयोग क्षणिककुछ सुन लें, फिर क्या जाने<br>हम कहाँ और तुम कहाँ प्रिये ।<br><br>कुछ अपनी कह लें।
पल-भर तो साथ-साथ बह लें,<br>कुछ सुन लें, आओ कुछ अपनी कह ले लें ।<br><br>औ' दे लें।
आओ कुछ ले लें औ' दे लें ।<br><br>हम हैं अजान पथ के राही,चलना जीवन का सार प्रियेपर दुःसह है, अति दुःसह हैएकाकीपन का भार प्रिये।
पल-भर हम हैं अजान पथ के राही-तुम मिल हँस-खेलें,<br>चलना जीवन का सार प्रिये<br>पर दुःसह है, अति दुःसह है<br>एकाकीपन का भार प्रिये ।<br><br>आओ कुछ ले लें औ' दे लें।
पल-भर हम-तुम मिल हँस-खेलें,<br>आओ कुछ ले लें औ' दे लें ।<br><br>अपने में लय कर लें।
हम-तुम अपने में लय कर लें ।<br><br>उल्लास और सुख की निधियाँ,बस इतना इनका मोल प्रियेकरुणा की कुछ नन्हीं बूँदेंकुछ मृदुल प्यार के बोल प्रिये।
उल्लास और सुख की निधियाँसौरभ से अपना उर भर लें,<br>बस इतना इनका मोल प्रिये<br>करुणा की कुछ नन्हीं बूँदें<br>कुछ मृदुल प्यार के बोल प्रिये ।<br><br>हम तुम अपने में लय कर लें।
सौरभ से अपना उर भर लें,<br>हम -तुम अपने में लय कर लें ।<br><br>जी-भर खुलकर मिल लें।
हमजग के उपवन की यह मधु-तुम जी-भर खुलकर मिल लें ।<br><br>श्री,सुषमा का सरस वसन्त प्रियेदो साँसों में बस जाय औरये साँसें बनें अनन्त प्रिये।
जग के उपवन की यह मधु-श्रीमुरझाना है आओ खिल लें,<br>सुषमा का सरस वसन्त प्रिये<br>दो साँसों में बस जाय और<br>ये साँसें बनें अनन्त प्रिये ।<br><br>हम-तुम जी-भर खुलकर मिल लें।
मुरझाना है आओ खिल लें,<br>हम-तुम जी-भर खुलकर मिल लें ।<br><br/poem>
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