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|रचनाकार=अज्ञेय
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{{KKCatKavita}}<poem>दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब। <br>तब ललाट की कुंचित अलकों-<br>तेरे ढरकीले आँचल को, <br>तेरे पावन-चरण कमल को, <br>छू कर धन्य-भाग अपने को लोग मानते हैं सब के सब।<br>मैं तो केवल तेरे पथ से <br>उड़ती रज की ढेरी भर के, <br>चूम-चूम कर संचय कर के <br>रख भर लेता हूँ मरकत-सा मैं अन्तर के कोषों में तब। <br>पागल झंझा के प्रहार सा, <br>सान्ध्य-रश्मियों के विहार-सा, <br>सब कुछ ही यह चला जाएगा-<br>इसी धूलि में अन्तिम आश्रय मर कर भी मैं पाऊँगा दब ! <br>
दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।
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