भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
{{KKCatGhazal}}
<poem>
ज़िन्दगी ,शराब की दुकान पे चली गईकशमकश उठी-चली , उड़ान पे चली गई
हाय..! बा-दिली कहाँ लुढ़क रही है बेसबब
देखते हैं आज किस ढलान पे चली गई
नफ़रतों का कारवाँ बढ़ा तो और बढ़ गया
रस्मो-राहियत अभी गठान पे चली गई
एक ही मिली कोई सुकून जिसके पास था
और कम्बख़त वो आसमान पे चली गई
दोज़खी से राब्ता कोई नहीं था ‘दीप’ जी !क्या बताएँ ज़हनियत गुमान पे चली गई I
</poem>