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हम उजाले का सफ़र तय इस तरह करते रहे।रहे
धूप में उगते रहे, खिलते रहे, तपते रहे।
घिर गयी संवेदना जब भीड़ आहों की बढ़ी,
बंद कमरे में अकेले गीत हम रचते रहे।
आदमी के रूप में अनुभूति क्यों इतनी मिली,
अश्रु से अपने नयन की दृष्टि हम धुलते रहे।
ज़िंदगी में कुछ न कुछ आवारगी भी चाहिए,
ग़म-खुशी के द्वन्द्व में जो पड़ गये पिसते रहे।
फूल हैं, काँटे भी हैं, शीशे भी हैं, पत्थर भी हैं,
पाँव भी बढ़ते रहे, पथ भी नये बनते रहे।
गीत, कविता या ग़ज़ल केवल बहाना दोस्तो,
आदमी से, आदमी की बात हम करते रहे।
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