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रैदास / परिचय

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'''संत रैदास (१४३३, माघ पूर्णिमा)
प्राचीनकाल से ही भारत में विभिन्न धर्मों तथा मतों के अनुयायी निवास करते रहे हैं। इन सबमें मेल-जोल और भाईचारा बढ़ाने के लिए सन्तों ने समय-समय पर महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ऐसे संत कुलभूषण कवि '''रैदास''' उन महान् सन्तों में रैदास का नाम अग्रगण्य है। वे सन्त कबीर अग्रणी थे जिन्होंने अपनी रचनाओं के गुरुभाई थे क्योंकि उनके भी गुरु स्वामी रामानन्द थे। लगभाग छ: सौ वर्ष पहले भारतीय समाज अनेक बुराइयों माध्यम से ग्रस्त था। उसी समय रैदास जैसे समाज-सुधारक सन्तों का प्रादुर्भाव हुआ। रैदास का जन्म काशी में चर्मकार कुल व्याप्त बुराइयों को दूर करने में हुआ था। उनके पिता महत्वपूर्ण योगदान किया। इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी का नाम रग्घु और माता का नाम घुरविनिया बताया जाता अद्भुत प्रयोग रही है जिससे जनमानस पर इनका अमिट प्रभाव पड़ता है। मधुर एवं सहज संत रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे। वाणी ज्ञानाश्रयी होते हुए भी ज्ञानाश्रयी एवं प्रेमाश्रयी शाखाओं के मध्य सेतु की तरह है।
उनकी समयानुपालन की प्रवृति प्राचीनकाल से ही भारत में विभिन्न धर्मों तथा मधुर व्यवहार मतों के कारण उनके सम्पर्क अनुयायी निवास करते रहे हैं। इन सबमें मेल-जोल और भाईचारा बढ़ाने के लिए सन्तों ने समय-समय पर महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ऐसे सन्तों में आने वाले लोग रैदास का नाम अग्रगण्य है। वे सन्त [[कबीर]] के गुरूभाई थे क्योंकि उनके भी बहुत प्रसन्न रहते गुरु स्वामी रामानन्द थे।
रैदास के ==जीवन==लगभग छ: सौ वर्ष पहले भारतीय समाज अनेक बुराइयों से ग्रस्त था। उसी समय में स्वामी रामानन्द रैदास जैसे समाज-सुधारक सन्तों का प्रादुर्भाव हुआ। रैदास का जन्म काशी के बहुत प्रसिद्ध प्रतिष्ठित सन्त थे। में चर्मकार कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम रग्घु और माता का नाम घुरविनिया बताया जाता है। रैदास उनकी शिष्यने साधु-मण्डली के महत्वपूर्ण सदस्य सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे।
प्रारम्भ में ही रैदास बहुत परोपरकारी उनकी समयानुपालन की प्रवृति तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके स्वभाव मधुर व्यवहार के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने रैदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से अलग कर दिया। रैदास पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग झोपड़ी बनकार तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे।
उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से रैदास के समय तथा वचन में स्वामी रामानन्द काशी के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे बहुत प्रसिद्ध प्रतिष्ठित सन्त थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, ‘गंगाउनकी शिष्य-स्नान मण्डली के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का मैंने वचन दे रखा है। यदि आज मैं जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होगा। गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है।’ कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि - मन चंगा तो कठौती में गंगा। महत्वपूर्ण सदस्य थे।
रैदासे ने ऊँच-नीच की भावना प्रारम्भ से ही रैदास बहुत परोपकारी तथा ईश्वरदयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-भक्ति सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके स्वभाव के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने रैदास तथा निरर्थक बताया और सबको परसम्पर मिलजुल उनकी पत्नी को अपने घर से अलग कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया। रैदास पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग झोपड़ी बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे।
वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों ==स्वभाव==उनके जीवन की रचना करते थे और उन्हें भावछोटी-विभोर होकर सुनाते थे। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है। एक ही परमेश्वर बार एक पर्व के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ही परमेश्वर ने उनसे भी चलने का गुणगान आग्रह किया गया है। ::“कृस्न, करीम, राम, हरितो वे बोले, राघव, जब लग ''गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु एक न पेखा। व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का मैंने वचन दे रखा है। यदि मैं उसे आज जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होगा। गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा ? मन जो काम करने के लिए अन्त::वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।” करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है।'' कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि - मन चंगा तो कठौती में गंगा।
उनका विश्वास था कि रैदास ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर की -भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा सदव्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिलजुल कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों प्रेमपूर्वक रहने का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल उपदेश दिया। अपने एक भजन में उन्होंने कहा है - ::“कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै। ::तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।”
वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है।<blockquote>'''''कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।'''''</blockquote>उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सद्व्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया। अपने एक भजन में उन्होंने कहा है-<blockquote>'''''कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।'''''</blockquote>उनके विचारों का आशय यही है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि लघु शरीर की पिपीलिका (चींटी) इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है। इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है।
रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वत: उनके अनुयायी बन जाते थे।
उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गये। कहा जाता है कि [[मीराबाई ]] उनकी भक्ति-भावना से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी शिष्या बन गयी थीं। ::‘वर्णाश्र अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की। ::सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की।।” <blockquote>
'''''वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की।।'''''</blockquote>आज भी सन्त रैदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सदव्यवहार सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को अपने समय के समाज में अत्याधिक अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं।  ==दोहे== * जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात ।रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात ।।<br />* मन चंगा तो कठौती में गंगा ||==भक्ति दोहे== <blockquote>'''अब कैसे छूटे राम, नाम रट लागी | प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी, जाकी अंग अंग बास समानि | प्रभुजी तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चन्द चकोरा | प्रभुजी तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती | प्रभुजी तुम मोती हम धागा, जैसे सोने मिलत सुहागा | प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा |'''</blockquote> ==अन्य प्रचलित नाम==रैदासरामदास