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|संग्रह=निशा निमन्त्रण / हरिवंशराय बच्चन
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संध्‍या सिंदूर लुटाती है!
 
रंगती स्‍वर्णिम रज से सुदंर
 
निज नीड़-अधीर खगों के पर,
 
तरुओं की डाली-डाली में कंचन के पात लगाती है!
 
संध्‍या सिंदूर लुटाती है!
 
करती सरि‍ता का जल पीला,
 
जो था पल भर पहले नीला,
 
नावों के पालों को सोने की चादर-सा चमकाती है!
 
संध्‍या सिंदूर लुटाती है!
 
उपहार हमें भी मिलता है,
 
श्रृंगार हमें भी मिलता है,
 
आँसू की बूंद कपोलों पर शोणित की-सी बन जाती है!
 
संध्‍या सिंदूर लुटाती है!
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