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धागे / सुभाष काक

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|रचनाकार=सुभाष काक
|संग्रह=मिट्टी का अनुराग / सुभाष काक
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''(१९७७, "लन्दन पुल" नामक पुस्तक से)''
 <poem>
जब अनुभूति तर्क में बन्धे
 
निर्भाव की पीडा
 
डुबोती है
 
निर्भाव उपहासते हैं
 
अवयव जलते हैं
 
कोशिकाएं पिघलती हैं
 
अम्ल में।
 
हा क्या जलना था
 
अपनी ही आग में?
 
प्रश्न का उत्तर
 
दूसरे प्रश्न में है।
 
वही स्वप्न आये हैं,
 
दस वर्ष
 
वही बिम्ब बैठे,
 
वही भय दबाये,
 
निर्वाण कैसे हो?
 
योगिनी छज्जे पर बैठी
 
पथिकों को कहती सी
 
मैं अकेली हूं
 
दूरबोध से।
 
क्या मैंने सही सुना
 
चाय के अवशेष परखूं
 
चित्र दर्पण मे देखूं
 
छाया मापूं
 
लाख का मन्त्र पाठ
 
रोम पर करूं?
 
हां वह कामुक है
 
पर शीघ्र ऊब जायेगी।
 
एक निःशब्द चीख झंझोटती है
 
गांव के सूअर का प्रेत
 
धुंध में घुलता सा दीखता है।
 
दौडता हूं कसाईक्षेत्र
 
और सूअर वहां है लकडी समान
 
पांव बंधे, मुंह दबा
 
उसकी चीखें आकाश फाडती,
 
चार लंगोटित लोग बहरे हैं
 
छुरी पैना रहे यह
 
घर के लिये मांस चाहते।
 
उस शाम को व्रत है
 
पर सूअर की आत्मा के बजाय
 
मेरे विचार भटकते हैं
 
और रुकते हैं आनन्द की पुत्री पर
 
मेरे मन्दिर पर षोडशी उपासिका
 
वह स्पर्श से स्फटिकमय है,
 
अतः मैं उसे रहस्य बतलाता हूं
 
अस्तित्व और शून्यता का।
 
मेरी चाह इतनी है
 
कि चाह ही इसकी पूर्ति है।
</poem>