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हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
 सोने-चाँदी चान्दी से नहीं किंतु  किन्तु तुमने मिट्टी से दिया किया प्यार ।  
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
 जन कोलाहल से दूर-  कहीं एकाकी सिमटा-सा निवास,  रवि-शशि का उतना नहीं  कि जितना प्राणों का होता प्रकाश  श्रम वैभव के बल पर करते हो  जड़ में चेतन का विकास  दानों-दानों में फूट रहे  सौ-सौ दानों के हरे हास,  यह है न पसीने की धारा,  यह गंगा की है धवल धार ।  
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
 अधखुले अंग जिनमें केवल  है कसे हुए कुछ अस्थि-खंडखण्ड जिनमें दधीचि की हड्डी है, यह वज्र इंद्र इन्द्र का है प्रचंड प्रचण्ड ! जो है गतिशील सभी ऋतु में  गर्मी वर्षा हो या कि ठंड ठण्ड जग को देते हो पुरस्कार  देकर अपने को कठिन दंड दण्ड ! झोपड़ी झुकाकर तुम अपनी  ऊँचे करते हो राज-द्वार ! 
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
 ये खेत तुम्हारी भरी-सृष्टि  तिल-तिल कर बोये बोए प्राण-बीज  वर्षा के दिन तुम गिनते हो,  यह परिवा है, यह दूज, तीज  बादल वैसे ही चले गए,  प्यासी धरती पाई न भीज  तुम अश्रु कणों से रहे सींच  इन खेतों की दुःख दुख भरी खीज  बस , चार अन्न के दाने ही  नैवेद्य तुम्हारा है उदार  
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
 यह नारी-शक्ति देवता की  कीचड़ है जिसका अंग-राग  यह भीर हुई सी बदली है  जिसमें साहस की भरी आग,  कवियो ! भूलो उपमाएँ सब  मत कहो, कुसुम, केसर, पराग,  यह जननी है, जिसके गीतों से  मृत अंकर अंकुर भी उठे जाग,  उसने जीवन भर सीखा है,  सुख से करना दुख का दुलार ! 
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
 ये राम-श्याम के सरल रूप,  मटमैले शिशु हँस हंस रहे खूब,  ये मुन्नमुन्ना, मोहन, हरे कृष्ण,  मंगल, मुरली, बच्चू, बिठूब,  इनको क्या चिंता चिन्ता व्याप सकी, जैसे धरती की हरी दूब  थोड़े दिन में ही ठंडठण्ड, झड़ी,  गर्मी सब इनमें गई डूब,  ये ढाल अभी से बने  छीन लेने को दुर्दिन के प्रहार ! 
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
 तुम जन मन के अधिनायक हो  तुम हँसो कि फूले-फले देश  आओ, सिंहासन पर बैठो यह राज्य तुम्हारा है अशेष ! उर्वरा भूमि के नये खेत के  नये धान्य से सजे वेश,  तुम भू पर रहकर भूमि-भार  धारण करते हो मनुज-शेष  अपनी कविता से आज तुम्हारी  विमल आरती लूँ उतार ! 
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
 (1948)</poem>
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