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सच / श्रीनिवास श्रीकांत

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 |रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत|संग्रह=घर एक यात्रा है / श्रीनिवास श्रीकांत
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<Poem>
बात को कई तरह सोचने से
 
हम नहीं पहुँच सकते सच तक
 
न सच को कई तरह खोजने से
 
बनेगी बात
 
सच व बात के बीच
 
अगर होता कोई पायेदार पुल
 तभी जीवों के काफिलेकाफ़िले
अपने लश्करों समेत
 
लगते इस महानद के पार
 
कोटि-कोटि चेतनाओं में जो
 
बहता है एक साथ
 
मरिचिकाएँ हमें दूर से भरमाती हैं
 मरु -दिशाओं के भ्रम में 
दिशाएँ नहीं आकाशीय परिमण्डल है वह
 
 
खिंचा हर ओर
 
निरन्तर परिचालन
 अलग -अलग गति -यति में 
हमें लगातार घेर रहे
 
अन्धे चुम्बक
 
चलना है जीना
 
जीना, और विलाप होना
और फिर-फिर जन्म लेना
और फिर फिर जन्म लेना  असमाप्य वृत्तनाटकों वृत्त-नाटकों का 
समूह है यह दुनिया
 जिसे खेल रहे हम यहाँ -वहाँ 
परिधिमय केंन्द्र और
 
केंन्द्रस्थ परिधि
 
यही है हमारा समायोजी रंगमंच
 
सरकता है अतीत
 
पीछे की ओर
 
और सम्वादों सहित
 
टूटते हैं बीते हुए कल के दिवास्वप्र
 
अनन्त है अप्राप्य सच
 
एक गहन रहस्य
 
बड़े मास्टर की
 
अदभुत योजना में
 
अनन्त है अनन्त
 जिसे गुन नहीं स•तासकता
मानवीय गणित
 
पार नहीं पा सकते
 दुनियाभर दुनिया-भर के खगोलज्ञ 
अपने अत्याधुनिक
 साइबर -ज्ञान के साथ 
एक बहुत बड़ा शून्य है
 
हमारे आसपास
 
नहीं बेध सकती जिसे
 
हमारी कोई भी
 
कारगर बात
 
हमारा सापेक्ष सत्य
 
या हमारा तंत्रज्ञान
 
सच है तत्वत:
 
एक अनुत्तरित मरीचिका
 
अनन्त में से उभरता अनन्त।
</poem>
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