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<br>दो०-जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई।
<br>चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं॥२४६॥
<br>–*–*–<br>चौ०-सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी॥
<br>उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥
<br>सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई॥
<br>गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी॥
<br>बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही॥
<br>जौ छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छप कच्छपु सोई॥
<br>सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू॥
<br>दो०-एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।
<br>तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥२४७॥
<br>–*–*–<br>चलिं चौ०-चलीं संग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी॥
<br>सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी॥
<br>भूषन सकल सुदेस सुहाए। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए॥
<br>दो०-गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि॥
<br>लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि॥२४८॥
<br>–*–*–<br>चौ०-राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें॥
<br>सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥
<br>हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई॥
<br>जग भल कहहि भाव सब काहू। हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू॥
<br>एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू॥
<br>तब बंदीजन जनक बौलाए। बोलाए। बिरिदावली कहत चलि आए॥
<br>कह नृप जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा॥
<br>दो०-बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।
<br>पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल॥२४९॥
<br>–*–*–<br>चौ०-नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू॥
<br>रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥
<br>सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा॥
<br>दो०-तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ।
<br>मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ॥२५०॥
<br>–*–*–<br>चौ०-भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥
<br>डगइ न संभु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥
<br>सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी॥
<br>दो०-कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय।
<br>पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥२५१॥
<br>–*–*–<br>चौ०-कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा॥
<br>रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई॥
<br>अब जनि कोउ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥
<br>तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥
<br>सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ॥
<br>जो जौं जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥
<br>जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी॥
<br>माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥
<br>दो०-कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।
<br>नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान॥२५२॥
<br>–*–*–<br>चौ०-रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई॥
<br>कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी॥
<br>सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू॥
<br>जौ जौं तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं॥
<br>काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी॥
<br>तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना॥
<br>नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ॥
<br>कमल नाल जिमि चाफ चाप चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं॥
<br>दो०-तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ।
<br>जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥२५३॥
<br>–*–*–<br>चौ०-लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥
<br>सकल लोक सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥
<br>गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं॥
<br>दो०-उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।
<br>बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग॥२५४॥
<br>–*–*–<br>चौ०-नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी॥
<br>मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥
<br>भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा॥
<br>दो०-रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।
<br>सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥२५५॥
<br>–*–*–<br>चौ०-सखि सब कौतुक देखनिहारे। जेठ जेउ कहावत हितू हमारे॥
<br>कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥
<br>रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा॥