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<Poem>
शहर पगला गया है
 
खुद को काट रहा है खुद ही,
 
जिस बस में बैठा है उसी को फूँक रहा है,
 
अपनी पिस्तौल
 
अपनी ही छाती पर तान रहा है,
 
पैट्रोल और माचिस लेकर
 
दौड़ रहा है एक बच्चे के पीछे.
 
बच्चे को शरण नहीं मिलती
 
मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे में,
 
न पुलिस मुख्यालय में,
 
न संसद-सचिवालय में.
 
विवश बच्चा एक बार फिर सड़क पर है.
 
दिशाहीन दौड़ता है लाचार.
 
पीछे-पीछे आता है शहर पैट्रोल और माचिस लिए,
 
आगे खड़ा है कर्फ्यू हाथों में स्टेनगन थामे
 
फ्लैगमार्च करता हुआ.
 
चूहा-बिल्ली का खेल जारी है,
 
कुंभ नहान चल रहा है,
 
प्रकाश पर्व का जुलूस बढ़ा चला आ रहा है,
 
अजान गूँज रही है,
 
गिरजे की घंटियाँ
 
उत्पन्न कर रही हैं फायर ब्रिरोड का भ्रम,
 
बच्चा बीच राह में मूर्छित पड़ा है.
 
त्रिशूल और तलवार लेकर
 
उसकी छाती के पवित्र कुरुक्षेत्र में
 
शहर धर्मयुद्ध कर रहा है
 
अपने आप से कि
 
बच्चे को बचाना है विधर्मियों के स्पर्श से.
 
बच्चा दम तोड़ रहा है
 
और
 
धर्मयुद्ध जारी है
 
पाखंड के समूचे तामझाम के साथ।।
 
 
 
 
 
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