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|रचनाकार=श्यामनन्दन किशोर
}}
{{KKCatKavita}}<poem>चमड़ी मिली खुदा के घर से<br>दमड़ी नहीं समाज दे सका<br>गजभर भी न वसन ढँकने को<br>निर्दय उभरी लाज दे सका<br><br>
मुखड़ा सटक गया घुटनों में<br>अटक कंठ में प्राण रह गये<br>सिकुड़ गया तन जैसे मन में<br>सिकुड़े सब अरमान रह गये<br><br>
मिली आग लेकिन न भाग्य-सा<br>जलने को जुट पाया इंधन<br>दाँतों के मिस प्रकट हो गया<br>मेरा कठिन शिशिर का क्रन्दन<br><br>
किन्तु अचानक लगा कि यह,<br>संसार बड़ा दिलदार हो गया<br>जीने पर दुत्कार मिली थी<br>मरने पर उपकार हो गया<br><br>
श्वेत माँग-सी विधवा की,<br>चदरी कोई इन्सान दे गया<br>और दूसरा बिन माँगे ही<br>ढेर लकड़ियाँ दान दे गया<br><br>
वस्त्र मिल गया, ठंड मिट गयी,<br>धन्य हुआ मानव का चोला<br>कफन फाड़कर मुर्दा बोला ।<br><br>बोला।
कहते मरे रहीम न लेकिन,<br>पेट-पीठ मिल एक हो सके<br>नहीं अश्रु से आज तलक हम,<br>अमिट क्षुधा का दाग धो सके<br><br>
खाने को कुछ मिला नहीं सो,<br>खाने को ग़म मिले हज़ारों<br>श्री-सम्पन्न नगर ग्रामों में<br>भूखे-बेदम मिले हज़ारों<br><br>
दाने-दाने पर पाने वाले<br>का सुनता नाम लिखा है<br>किन्तु देखता हूँ इन पर,<br>ऊँचा से ऊँचा दाम लिखा है<br><br>
दास मलूका से पूछो क्या,<br>'सबके दाता राम' लिखा है?<br>या कि गरीबों की खातिर,<br>भूखों मरना अंजाम लिखा है?<br><br>
किन्तु अचानक लगा कि यह,<br>संसार बड़ा दिलदार हो गया<br>जीने पर दुत्कार मिली थी<br>मरने पर उपकार हो गया ।<br><br>गया।
जुटा-जुटा कर रेजगारियाँ,<br>भोज मनाने बन्धु चल पड़े<br>जहाँ न कल थी बूँद दीखती,<br>वहाँ उमड़ते सिन्धु चल पड़े<br><br>
निर्धन के घर हाथ सुखाते,<br>नहीं किसी का अन्तर डोला<br>कफ़न फाड़कर मुर्दा बोला ।<br><br>बोला।
घरवालों से, आस-पास से,<br>मैंने केवल दो कण माँगा<br>किन्तु मिला कुछ नहीं और<br>मैं बे-पानी ही मरा अभागा<br><br>
जीते-जी तो नल के जल से,<br>भी अभिषेक किया न किसी ने<br>रहा अपेक्षित, सदा निरादृत<br>कुछ भी ध्यान दिया न किसी ने<br><br>
बाप तरसता रहा कि बेटा,<br>श्रद्धा से दो घूँट पिला दे<br>स्नेह-लता जो सूख रही है<br>ज़रा प्यार से उसे जिला दे<br><br>
कहाँ श्रवण? युग के दशरथ ने,<br>एक-एक को मार गिराया<br>मन-मृग भोला रहा भटकता,<br>निकली सब कुछ लू की माया<br><br>
किन्तु अचानक लगा कि यह,<br>घर-बार बड़ा दिलदार हो गया<br>जीने पर दुत्कार मिली थी,<br>मरने पर उपकार हो गया<br><br>
आश्चर्य वे बेटे देते,<br>पूर्व-पुरूष को नियमित तर्पण<br>नमक-तेल रोटी क्या देना,<br>कर न सके जो आत्म-समर्पण !<br><br>
जाऊँ कहाँ, न जगह नरक में,<br>और स्वर्ग के द्वार न खोला !<br>कफ़न फाड़कर मुर्दा बोला ।<br>बोला।<br/poem>
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