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सो0-बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि।<br>
कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर।।25।।<br><br>
अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा।।<br />कहु केहि रंकहि करौ नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू।।<br />सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी।।<br />जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद चकोरू।।<br />प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें।।<br />जौं कछु कहौ कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही।।<br />बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता।।<br />घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू।।<br />दो0-यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद।<br /> भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुँ किरातिनि फंद।।26।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> पुनि कह राउ सुह्रद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी।।<br />भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा।।<br />रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू।।<br />दलकि उठेउ सुनि ह्रदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू।।<br />ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई।।<br />लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई।।<br />जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू।।<br />कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी।।<br />दो0-मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।<br /> देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु।।27।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई।।<br />थाति राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ।।<br />झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू।।<br />रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई।।<br />नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा।।<br />सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए।।<br />तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई।।<br />बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली।।<br />दो0-भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।<br /> भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु।।28।।<br /><br> मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका।।<br />मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी।।<br />तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी।।<br />सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू।।<br />गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा।।<br />बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू।।<br />माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन।।<br />मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला।।<br />अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कै नेईं।।<br />दो0-कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।<br /> जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास।।29।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा।।<br />भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही।।<br />जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे।।<br />देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं।।<br />देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ सत्य जग अपजसु लेहू।।<br />
सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना।।<br />
सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा।।<br />अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई।।<br />दो0-धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।<br /> सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ।।30।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> आगें दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी।।<br />मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई।।<br />लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा।।<br />बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती।।<br />प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती।।<br />मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरू साखी।।<br />अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता।।<br />सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई।।<br />दो0- लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।<br /> मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति।।31।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> राम सपथ सत कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ।।<br />मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें।।<br />रिस परिहरू अब मंगल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू।।<br />एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा।।<br />अजहुँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा।।<br />कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू।।<br />तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू।।<br />जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला।।<br />दो0- प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।<br /> जेहिं देखाँ अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु।।32।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> जिऐ मीन बरू बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना।।<br />कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं।।<br />समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस आधीना।।<br />सुनि म्रदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई।।<br />कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया।।<br />देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं।<br />रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने।।<br />जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका।।<br />दो0-होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।<br /> मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं।।33।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी।।<br />पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई।।<br />दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन प्रचारा।।<br />ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला।।<br />लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची।।<br />गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी।।<br />मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही।।<br />राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती।।<br />दो0-देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।<br /> कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ।।34।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता।।<br />कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी।।<br />पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई।।<br />जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ।।<br />दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला।।<br />दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई।।<br />छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू।।<br />तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी।।<br />दो0-मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।<br /> लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर।।35।।û<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें।।<br />सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू।।<br />सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई।।<br />करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई।।<br />तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि काऊ।।<br />अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई।।<br />जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी।।<br />फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारु लागी।।<br />दो0-परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।<br /> कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु।।36।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू।।<br />हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई।।<br />उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि उर।।<br />भूप प्रीति कैकइ कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई।।<br />बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि द्वारा।।<br />पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक।।<br />मंगल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन जैसें।।<br />तेहिं निसि नीद परी नहि काहू। राम दरस लालसा उछाहू।।<br />दो0-द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।<br /> जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि।।37।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा।।<br />जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई।।<br />गए सुमंत्रु तब राउर माही। देखि भयावन जात डेराहीं।।<br />धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा।।<br />पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेंहिं भवन भूप कैकैई।।<br />कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। दैखि भूप गति गयउ सुखाई।।<br />सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुँ कमल मूलु परिहरेऊ।।<br />सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूछी।।<br />दो0-परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।<br /> रामु रामु रटि भोरु किय कहइ न मरमु महीसु।।38।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई।।<br />चलेउ सुमंत्र राय रूख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी।।<br />सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ।।<br />उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूछँहिं सकल देखि मनु मारें।।<br />समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका।।<br />रामु सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा।।<br />निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई।।<br />रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं।।<br />दो0-जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु।।<br /> सहमि परेउ लखि सिंघिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु।।39।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू।।<br />सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गनि लेई।।<br />करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुखु सुना न काऊ।।<br />तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी।।<br />मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन।।<br />सुनहु राम सबु कारन एहू। राजहि तुम पर बहुत सनेहू।।<br />देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना।<br />सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू।।<br />दो0-सुत सनेह इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु।<br /> सकहु न आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु।।40।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी।।<br />जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना।।<br />जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू।।<br />सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई।।<br />मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद निधानू।।<br />बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन।।<br />सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी।।<br />तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा।।<br />दो0-मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।<br /> तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर।।41।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु।<br />जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा।।<br />सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी।।<br />तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं।।<br />अंब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी।।<br />थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी।।<br />राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू।।<br />जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ।।<br />दो0-सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।<br /> चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान।।42।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई।।<br />
सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना।।<br />
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