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|रचनाकार=जयशंकर प्रसाद|अनुवादक=|संग्रह=कामायनी / जयशंकर प्रसाद
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[[Category:महाकाव्य]]
<poem>
मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन,
 
वरदान बने मेरा जीवन
 
जो मुझको तू यों चली छोड,
 
तो मुझे मिले फिर यही क्रोड"
 
"हे सौम्य इडा का शुचि दुलार,
 
हर लेगा तेरा व्यथा-भार,
 
यह तर्कमयी तू श्रद्धामय,
 
तू मननशील कर कर्म अभय,
 
इसका तू सब संताप निचय,
 
हर ले, हो मानव भाग्य उदय,
 
सब की समरसता कर प्रचार,
 
मेरे सुत सुन माँ की पुकार।"
 
 
"अति मधुर वचन विश्वास मूल,
 
मुझको न कभी ये जायँ भूल
 
हे देवि तुम्हारा स्नेह प्रबल,
 
बन दिव्य श्रेय-उदगम अविरल,
 
आकर्षण घन-सा वितरे जल,
 
निर्वासित हों संताप सकल"
 
कहा इडा प्रणत ले चरण धूल,
 
पकडा कुमार-कर मृदुल फूल।
 
वे तीनों ही क्षण एक मौन-
 
विस्मृत से थे, हम कहाँ कौन
 
विच्छेद बाह्य, था आलिगंन-
 
वह हृदयों का, अति मधुर-मिलन,
 
मिलते आहत होकर जलकन,
 
लहरों का यह परिणत जीवन,
 
दो लौट चले पुर ओर मौन,
 
जब दूर हुए तब रहे दो न।
 
निस्तब्ध गगन था, दिशा शांत,
 
वह था असीम का चित्र कांत।
 
कुछ शून्य बिंदु उर के ऊपर,
 
व्यथिता रजनी के श्रमसींकर,
 
झलके कब से पर पडे न झर,
 
गंभीर मलिन छाया भू पर,
 
सरिता तट तरु का क्षितिज प्रांत,
 
केवल बिखेरता दीन ध्वांत।
 
शत-शत तारा मंडित अनंत,
 
कुसुमों का स्तबक खिला बसंत,
 
हँसता ऊपर का विश्व मधुर,
 
हलके प्रकाश से पूरित उर,
 
बहती माया सरिता ऊपर,
 
उठती किरणों की लोल लहर,
 
निचले स्तर पर छाया दुरंत,
 
आती चुपके, जाती तुरंत।
 
सरिता का वह एकांत कूल,
 
था पवन हिंडोले रहा झूल,
 
धीरे-धीरे लहरों का दल,
 
तट से टकरा होता ओझल,
 
छप-छप का होता शब्द विरल,
 
थर-थर कँप रहती दीप्ति तरल
 
संसृति अपने में रही भूल,
 
वह गंध-विधुर अम्लान फूल।
 
तब सरस्वती-सा फेंक साँस,
 
श्रद्धा ने देखा आस-पास,
 
थे चमक रहे दो फूल नयन,
 
ज्यों शिलालग्न अनगढे रतन,
 
वह क्या तम में करता सनसन?
 
धारा का ही क्या यह निस्वन
 
ना, गुहा लतावृत एक पास,
 
कोई जीवित ले रहा साँस।
 
वह निर्जन तट था एक चित्र,
 
कितना सुंदर, कितना पवित्र?
 
कुछ उन्नत थे वे शैलशिखर,
 
फिर भी ऊँचा श्रद्धा का सिर,
 
वह लोक-अग्नि में तप गल कर,
 
थी ढली स्वर्ण-प्रतिमा बन कर,
 
मनु ने देखा कितना विचित्र
 
वह मातृ-मूर्त्ति थी विश्व-मित्र।
 
बोले "रमणी तुम नहीं आह
 
जिसके मन में हो भरी चाह,
 
तुमने अपना सब कुछ खोकर,
 
वंचिते जिसे पाया रोकर,
 
मैं भगा प्राण जिनसे लेकर,
 
उसको भी, उन सब को देकर,
 
निर्दय मन क्या न उठा कराह?
 
अद्भुत है तब मन का प्रवाह
 
ये श्वापद से हिंसक अधीर,
 
कोमल शावक वह बाल वीर,
 
सुनता था वह प्राणी शीतल,
 
कितना दुलार कितना निर्मल
 
कैसा कठोर है तव हृत्तल
 
वह इडा कर गयी फिर भी छल,
 
तुम बनी रही हो अभी धीर,
 
छुट गया हाथ से आह तीर।"
 
 
"प्रिय अब तक हो इतने सशंक,
 
देकर कुछ कोई नहीं रंक,
 
यह विनियम है या परिवर्त्तन,
 
बन रहा तुम्हारा ऋण अब धन,
 
अपराध तुम्हारा वह बंधन-
 
लो बना मुक्ति, अब छोड स्वजन-
 
निर्वासित तुम, क्यों लगे डंक?
 
दो लो प्रसन्न, यह स्पष्ट अंक।"
 "तुम देवि आह कितनी उदार, 
यह मातृमूर्ति है निर्विकार,
 
हे सर्वमंगले तुम महती,
 
सबका दुख अपने पर सहती,
 
कल्याणमयी वाणी कहती,
 
तुम क्षमा निलय में हो रहती,
 
मैं भूला हूँ तुमको निहार-
 
नारी सा ही, वह लघु विचार।
 
मैं इस निर्जन तट में अधीर,
 सह भूख व्यथा तीखा समीर,  
हाँ भावचक्र में पिस-पिस कर,
 
चलता ही आया हूँ बढ कर,
 
इनके विकार सा ही बन कर,
 
मैं शून्य बना सत्ता खोकर,
 
लघुता मत देखो वक्ष चीर,
 
जिसमें अनुशय बन घुसा तीर।"
 
 
"प्रियतम यह नत निस्तब्ध रात,
 
है स्मरण कराती विगत बात,
 
वह प्रलय शांति वह कोलाहल,
 
जब अर्पित कर जीवन संबल,
 मैं हुई तुम्हारी थी निश्छल,  
क्या भूलूँ मैं, इतनी दुर्बल?
 
तब चलो जहाँ पर शांति प्रात,
 
मैं नित्य तुम्हारी, सत्य बात।
 
इस देव-द्वंद्व का वह प्रतीक-
 
मानव कर ले सब भूल ठीक,
 
यह विष जो फैला महा-विषम,
 
निज कर्मोन्नति से करते सम,
 
सब मुक्त बनें, काटेंगे भ्रम,
 
उनका रहस्य हो शुभ-संयम,
 
गिर जायेगा जो है अलीक,
 
चल कर मिटती है पडी लीक।"
 
वह शून्य असत या अंधकार,
 
अवकाश पटल का वार पार,
 
बाहर भीतर उन्मुक्त सघन,
 
था अचल महा नीला अंजन,
 
भूमिका बनी वह स्निग्ध मलिन,
 
थे निर्निमेष मनु के लोचन,
 
इतना अनंत था शून्य-सार,
 
दीखता न जिसके परे पार।
 
सत्ता का स्पंदन चला डोल,
 
आवरण पटल की ग्रंथि खोल,
 
तम जलनिधि बन मधुमंथन,
 
ज्योत्स्ना सरिता का आलिंगन,
 
वह रजत गौर, उज्जवल जीवन,
 
आलोक पुरुष मंगल चेतन
 
केवल प्रकाश का था कलोल,
 
मधु किरणों की थी लहर लोल।
 
बन गया तमस था अलक जाल,
 
सर्वांग ज्योतिमय था विशाल,
 
अंतर्निनाद ध्वनि से पूरित,
 
थी शून्य-भेदिनी-सत्ता चित्त,
 
नटराज स्वयं थे नृत्य-निरत,
 
था अंतरिक्ष प्रहसित मुखरित,
 
स्वर लय होकर दे रहे ताल,
 
थे लुप्त हो रहे दिशाकाल।
 
लीला का स्पंदित आह्लाद,
 
वह प्रभा-पुंज चितिमय प्रसाद,
 
आनन्द पूर्ण तांडव सुंदर,
 झरते थे उज्ज्वल श्रम सीकर,  
बनते तारा, हिमकर, दिनकर
 
उड रहे धूलिकण-से भूधर,
 
संहार सृजन से युगल पाद-
 
गतिशील, अनाहत हुआ नाद।
 
बिखरे असंख्य ब्रह्मांड गोल,
 
युग ग्रहण कर रहे तोल,
 
विद्यत कटाक्ष चल गया जिधर,
 
कंपित संसृति बन रही उधर,
 
चेतन परमाणु अनंथ बिखर,
 
बनते विलीन होते क्षण भर
 
यह विश्व झुलता महा दोल,
 
परिवर्त्तन का पट रहा खोल।
 
उस शक्ति-शरीरी का प्रकाश,
 
सब शाप पाप का कर विनाश-
 
नर्त्तन में निरत, प्रकृति गल कर,
 
उस कांति सिंधु में घुल-मिलकर
 
अपना स्वरूप धरती सुंदर,
 
कमनीय बना था भीषणतर,
 
हीरक-गिरी पर विद्युत-विलास,
 
उल्लसित महा हिम धवल हास।
 
देखा मनु ने नर्त्तित नटेश,
 
हत चेत पुकार उठे विशेष-
 
"यह क्या श्रद्धे बस तू ले चल,
 
उन चरणों तक, दे निज संबल,
 
सब पाप पुण्य जिसमें जल-जल,
 
पावन बन जाते हैं निर्मल,
 
मिटतते असत्य-से ज्ञान-लेश,
 
समरस, अखंड, आनंद-वेश" ।
  ''''''''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar''''''''''</poem>
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