भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बेजगह / अनामिका

139 bytes removed, 15:08, 4 नवम्बर 2009
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
“अपनी जगह से गिर कर
कहीं के नहीं रहते
केश, औरतें और नाख़ून” -
अन्वय करते थे किसी श्लोक को ऐसे
हमारे संस्कृत टीचर।
और मारे डर के जम जाती थीं
हम लड़कियाँ अपनी जगह पर।
जगह? जगह क्या होती है?
यह वैसे जान लिया था हमने
अपनी पहली कक्षा में ही।
“अपनी जगह से गिर कर<br>याद था हमें एक-एक क्षण कहीं के नहीं रहते<br>आरंभिक पाठों का– केशराम, औरतें और नाख़ून” -<br>पाठशाला जा ! अन्वय करते थे किसी श्लोक को ऐसे<br>राधा, खाना पका ! हमारे संस्कृत टीचर।<br>राम, आ बताशा खा ! और मारे डर के जम जाती थीं<br>राधा, झाड़ू लगा ! भैया अब सोएगा जाकर बिस्तर बिछा ! अहा, नया घर है ! राम, देख यह तेरा कमरा है ! ‘और मेरा ?’ ‘ओ पगली, हम लड़कियाँ अपनी जगह पर।<br><br>हवा, धूप, मिट्टी होती हैं उनका कोई घर नहीं होता।"
जिनका कोई घर नहीं होता– उनकी होती है भला कौन-सी जगह? कौन-सी जगह क्या होती है?<br>यह वैसे जान लिया था हमने<br>ऐसी अपनी पहली कक्षा में ही।<br><br>जो छूट जाने पर औरत हो जाती है।
याद था हमें एक-एक क्षण<br>आरंभिक पाठों का–<br>रामकटे हुए नाख़ूनों, पाठशाला जा !<br>राधा, खाना पका !<br>कंघी में फँस कर बाहर आए केशों-सी राम, आ बताशा खा !<br>राधा, झाड़ू लगा !<br>भैया अब सोएगा<br>जाकर बिस्तर बिछा !<br>अहा, नया घर है !<br>राम, देख यह तेरा कमरा है !<br>‘और मेरा एकदम से बुहार दी जाने वाली?’<br>‘ओ पगली,<br>लड़कियाँ हवा, धूप, मिट्टी होती हैं<br>उनका कोई घर नहीं होता।"<br><br>
जिनका कोई घर नहीं होता–<br>उनकी होती है भला कौनछूटे, दर छूटे, छूट गए लोग-सी जगह ?<br>बाग कौन-सी जगह होती है ऐसी<br>कुछ प्रश्न पीछे पड़े थे, वे भी छूटे! जो छूट जाने पर औरत हो जाती है।<br><br>छूटती गई जगहें लेकिन, कभी भी तो नेलकटर या कंघियों में फँसे पड़े होने का एहसास नहीं हुआ!
कटे हुए नाख़ूनों,<br>कंघी में फँस परंपरा से छूट कर बाहर आए केशोंबस यह लगता है– किसी बड़े क्लासिक से पासकोर्स बी.ए. के प्रश्नपत्र पर छिटकी छोटी-सी<br>पंक्ति हूँ– एकदम से बुहार दी जाने वाली?<br><br>चाहती नहीं लेकिन कोई करने बैठे मेरी व्याख्या सप्रसंग।
घर छूटे, दर छूटे, छूट गए लोग-बाग<br>कुछ प्रश्न पीछे पड़े थे, वे भी छूटे!<br>छूटती गई जगहें<br>लेकिन, कभी भी तो नेलकटर या कंघियों में<br>फँसे पड़े होने का एहसास नहीं हुआ!<br><br> परंपरा से छूट कर बस यह लगता है–<br>किसी बड़े क्लासिक से<br>पासकोर्स बी.ए. के प्रश्नपत्र पर छिटकी<br>छोटी-सी पंक्ति हूँ–<br>चाहती नहीं लेकिन<br>कोई करने बैठे<br>मेरी व्याख्या सप्रसंग।<br><br> सारे संदर्भों के पार<br>मुश्किल से उड़ कर पहुँची हूँ<br>ऐसी ही समझी-पढ़ी जाऊँ<br>जैसे तुकाराम का कोई<br>अधूरा अंभग! <br><br/poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits