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दो चिराग़ / अली सरदार जाफ़री

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<poem>
दो चिराग़=======
तीरगी के सियाह ग़ारों से
एक मैली दुकान तीरः-ओ-तार
इक चिराग़ और एक दोशीज़ा<ref>किशोरी</ref>वोह बुझी-सी है वह उदास-सा है
दोनों जाड़ों की लम्बी रातों में
तीरगी और हवा से लड़ते हैं
और हवाओं के हाथ में गुस्ताख़
तोड़े लेते हैं नन्हे शो’ले को
भींच लेते हैं मैले आँचल को
लड़की रह-रह के जिस्म ढाँपती है
शो’ला रह-रह के थरथराता है
नंगी बूढ़ी बूढ़ी ज़मीन काँपती है
तीरगी अब सियह समन्दर है
फूँक डालेंगे तीरगी की मता<ref>अन्धकार की सत्ता[सम्पत्ति]</ref>
पर मुझे एतिमाद<ref>भरोसा</ref> है इन पर
गो ग़रीब और बेज़बान-से हैं
दोनों हैं आग दोनों हैं शो’ला