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{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
|अनुवादक=
|संग्रह=मिलन यामिनी / हरिवंशराय बच्चन
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<poem>
सुधि में संचित वह साँझ कि जब
 रतनारी प्‍यारी प्यारी सारी में, तुम, प्राण, मिलीं नत, लाज-भरी 
मधुऋतु-मुकुलित गुलमुहर तले।
 
सिंदूर लुटाया था रवि ने,
 संध्‍या संध्या ने स्‍वर्ण स्वर्ण लुटाया था, 
थे गाल गगन के लाल हुए,
 
धरती का दिल भर आया था,
 
लहराया था भरमाया-सा
 
डाली-डाली पर गंध पवन
 
जब मैंने तुमको औ' तुमने
 
मुझको अनजाने पाया था;
 है धन्‍य धन्य धरा जिस पर मन का 
धन धोखे से मिल जाता है;
 पल अचरज और अनिश्‍चय अनिश्चय के 
पलकों पर आते ही पिघले,
 
पर सुधि में संचित साँझ कि जब
 रतनारी प्‍यारी प्यारी सारी में, तुम, प्राण, मिलीं नत, लाज-भरी 
मधुऋतु-मुकुलित गुलमुहर तले।
 
सायं-प्रात: का कंचन काया
 
यदि अधरों का अंगार मिले,
 तारकमणियों की संपत्ति क्‍याक्या
यदि बाँहों का गलहार मिले,
 संसार मिले भी तो क्‍या क्या जब 
अपना अंतर ही सूना हो,
 पाना फिर क्‍या क्या शेष रहे जब 
मन को मन का उपहार मिले;
 है धन्‍य धन्य प्रणय जिसको पाकर मानव स्‍वर्गों स्वर्गों को ठुकराता; ऐसे पागलपन का अवसर  
कब जीवन में दो बार मिले;
 है याद मुझे वह शाम कि जबनीलम सी सारी में, तुम, प्राण, मिलीं उन्‍माद उन्माद भरी 
खुलकर फूले गुलमुहर तले।
 
सुधि में संचित वह साँझ कि जब
 रतनारी प्‍यारी प्यारी सारी में, तुम, प्राण, मिलीं नत, लाज-भरी 
मधुऋतु-मुकुलित गुलमुहर तले।
 
आभास बिरह का आया था
 मुझको मिलने की घड़ि‍यों घड़ियों में, 
आहों की आहट आई थी
 मुझको हँसती फुलझड़‍ियों फुलझड़ियों में, 
मानव के सुख में दुख ऐसे
 
चुचाप उतरकर आ जाता,
 
है ओंस ढुलक पड़ती जैसे
 
मकरंदमयी पंखुरियों में;
 है धन्‍य धन्य समय जिससे सपना 
सच होता, सच सपना होता;
 अंकित सबके अंतरपट पर  
कुछ बीती बातें, दिन पिछले;
 
कब भूल सका गोधूली की जब
 
सित-सेमल सादी सारी में, तुम, प्राण, मिली अवसाद-भरी
 
कलि-पुहुप झरे गुलमुहर तले।
 
सुधि में संचित वह साँझ कि जब
 रतनारी प्‍यारी प्यारी सारी में, तुम, प्राण, मिलीं नत, लाज-भरी 
मधुऋतु-मुकुलित गुलमुहर तले।
</poem>
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