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तपन-ताप-मध्यान्ह प्रखरता
से नाता जो लेगा जोड़?
 
चण्ड दिवाकर ही तो भरता
शशघर में कर-कोमल-प्राण,
किन्तु कलाधर को ही देता
साराविश्व प्रेम-सम्मान! सुख के हेतु सभी हैं पागल,दुख से किस पामर का प्यार?सुख में है दुख, गरल अमृत में,देखो, बता रहा संसार। सुख-दुख का यह निरा हलाहलभरा कण्ठ तक सदा अधीर,रोते मानव, पर आशा कानहीं छोड़ते चंचल चीर! रुद्र रूप से सब डरते हैं,देख देख भरते हैं आह,मृत्युरूपिणी मुक्तकुन्तलामाँ की नहीं किसी को चाह! उष्णधार उद्गार रुधिर काकरती है जो बारम्बार,भीम भुजा की, बीन छीनती,वह जंगी नंगी तलवार। मृत्यु-स्वरूपे माँ, है तू हीसत्य स्वरूपा, सत्याधार;काली, सुख-वनमाली तेरीमाया छाया का संसार! अये--कालिके, माँ करालिके,शीघ्र मर्म का कर उच्छेद,इस शरीर का प्रेम-भाव, यहसुख-सपना, माया, कर भेद! तुझे मुण्डमाला पहनाते,फिर भय खाते तकते लोग,’दयामयी’ कह कह चिल्लाते,माँ, दुनिया का देखा ढोंग। प्राण काँपते अट्टहास सुनदिगम्बरा का लख उल्लास,अरे भयातुर; असुर विजयिनीकह रह जाता, खाता त्रास! मुँह से कहता है, देखेगा,पर माँ, जब आता है काल,कहाँ भाग जाता भय खाकरतेरा देख बदन विकराल! माँ, तू मृत्यु घूमती रहती,उत्कट व्याधि, रोग बलवान,भर विष-घड़े, पिलाती है तूघूँट जहर के, लेती प्राण।  
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