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घूँट जहर के, लेती प्राण।
रे उन्माद! भुलाता है तू
अपने को, न फिराता दृष्टि
पीछे भय से, कहीं देख तू
भीमा महाप्रलय की सृष्टि।
दुख चाहता; बता; इसमें क्या
भरी नहीं है सुख की प्यास?
तेरी भक्ति और पूजा में
चलती स्वार्थ-सिद्ध की साँस।
 
छाग-कण्ठ की रुधिर-धार से
सहम रहा तू, भय-संचार!
अरे कापुरुष, बना दया का
तू आधार!--धन्य व्यवहार!
 
फोड़ो वीणा, प्रेम-सुधा का
पीना छोड़ो, तोड़ो, वीर,
दृढ़ आकर्षण है जिसमें उस
नारी-माया की जंजीर।
 
बढ़ जाओ तुम जलधि-ऊर्मि-से
गरज गरज गाओ निज गान,
आँसू पीकर जीना; जाये
देह, हथेली पर लो जान।
 
जागो वीर! सदा ही सर पर
काट रहा है चक्कर काल,
छोड़ो अपने सपने, भय क्यों,
काटो, काटो यह भ्रम-जाल।
 
दु:खभार इस भव के ईश्वर,
जिनके मन्दिर का दृढ़ द्वार
जलती हुई चिताओं में है
प्रेत-पिशाचों का आगार;
 
सदा घोर संग्राम छेड़ना
उनकी पूजा के उपचार,
वीर! डराये कभी न, आये
अगर पराजय सौ-सौ बार।
 
चूर-चूर हो स्वार्थ, साध, सब
मान, हृदय हो महाश्मशान,
नाचे उसपर श्यामा, घन रण
में लेकर निज भीम कृपाण।*
 
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’*स्वामी विवेकानन्द जी महाराज की सुविख्यात रचना ’नाचुक ताहाते श्यामा’
का अनुवाद। स्वामी जी ने इसमें कोमल और कठोर भावों की वर्णना द्वारा
कठोरता की सिद्धि दिखाई गयी है।
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