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अज्ञेय / परिचय

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पिताजी के आग्रह से अन्य धर्मों के ग्रन्थ भी पढ़े और घर पर ही पिताजी के पुस्तकालयों का सदुपयोग शुरू किया। वर्ड्सवर्थ, टेनिसन, लांगफेलो और व्हिटमैन की कविताएं इस अवधि में पढ़ीं। शेक्सियर, मारलो, वेब्स्टर के नाटक तथा लिटन, जार्ज एलियट, थैकरे, गोल्डस्मिथ, तोल्स्तोय, तुर्गनेव, गोगोल, विक्टर ह्यूगो तथा मेलविल के उपन्यास भी पढ़े गये। लयबद्ध भाषा के कारण टेनिसन का प्रभाव बड़ा गहरा पड़ा। टेनिसन के अनुकरण में, अंग्रेजी में ढेरों कविताएं भी लिखीं। उपन्यासकारों में ह्यूगो का प्रभाव, विशेषकर उनकी रचना टॉयलर ऑफ़ द सी का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। इसी अवधि में विश्वेश्वर नाथ रेऊ तथा गौरीचन्द हीराचन्द ओझा की हिन्दी में लिखी इतिहास की रचनाएं पढ़ने को मिलीं तथा मीरा, तुलसी के साहित्य का अध्ययन भी इन्होंने किया। साहित्यिक कृतित्व के नाम पर इस अवधि की देन है आनन्द बन्धु जो इस परिवार की निजी पत्रिका थी। इस पत्रिका के समीक्षक थे हीरालाल जी और डॉ.. मौद्गिल। इस अवधि में एक छोटा उपन्यास भी लिखा और इसी अवधि में जब मैट्रिक की तैयारी ये कर रहे थे, मां के साथ इन्होंने जलियावाला बाग-काण्ड की घटना के आसपास पंजाब की यात्रा की थी और अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध विद्रोह की भावना ने जन्म लिया था। इनके पिताजी स्वयं अंग्रेजी की अधीनता की चुभन कभी-कभी व्यक्त करते थे।
एक घटना भी ब्लैकस्टोन नामक अंग्रेजी अधिकारी के साथ घट चुकी थी। वह शास्त्रीजी और राखालदास के साथ यात्रा कर रहा था। डिब्बे में राखालदास की पत्नी भी थीं। वह स्नानकक्ष से अर्धनग्न डिब्बे के भीतर आया। शास्त्रीजी ने उस से पूछा, ‘‘क्या इस रूप में तुम किसी अंग्रेज महिला के सामने आ सकते थे ?’ उत्तर में वह कुछ बोला नहीं, हंसता रहा। शास्त्रीजी ने उसे उठाकर डिब्बे से बाहर फेंक दिया। उसने आजीवन शत्रुता निभाई, यहां तक कि पिता द्वारा किए गए इस अपमान का बदला पुत्र से चुकाया, जब वे लाहौर किले में नज़रबन्द हुए। दूसरी घटना ऊटी में स्वंय सच्चिदानन्द के साथ घटी थी, जब वे दो-तीन महीने अंग्रेज़ों के साथ स्कूल में पढ़ने गए। वहां अंग्रेज लड़कों की मरम्मत करके ही इन्हें स्कूल में कार्ड मिला, जिसे फेंक कर ये घर चले आए। 1925 में पंजाब से मैट्रिक की प्राइवेट परीक्षा दी और उसी वर्ष इण्टरमीडिएट साइंस पढ़ने मद्रास क्रिश्चियन कालेज में दाखिल हुए। यहाँ उन्होंने गणित, भौतिकशास्त्र और संस्कृत विषय लिए थे। यहां इनके अंग्रेजी प्रोफेसर हेण्डरसन ने (जिन्हें त्रिशंकु समर्पित की गई) साहित्य के अध्ययन की प्रेरणा दी।
ये स्वयं भारत के भक्त थे। इन्हीं के साथ टैगोर अध्ययन-मण्डल की स्थापना की और रस्किन के सौन्दर्यशास्त्र तथा आचरणशास्त्र का अध्ययन किया। कला-क्षेत्रों के बीच घूमते-घूमते स्थाप्तय और शिल्प दोनों का राग-बोध परिपक्व होता गया। दक्षिण के मन्दिर और नीलगिरि के दृश्य ने उनके व्यक्तित्व में प्रकृति-प्रेम और कलाप्रेम को निखार दिया। मद्रास में सामाजिक विषमता की चेतना जगने लगी थी और जाति के विरुद्ध विद्रोह मन में इसी अवधि में उमड़ना शुरू हुआ। शास्त्रीजी स्वयं जाति में विश्वास न कर के वर्ण में विश्वास करते थे और पुत्रों से आशा करते थे कि ब्राह्मणवर्ण का स्वभाव—त्याग, अभय और सत्य—उन्हें कभी नहीं छोड़ना चाहिए।
दूसरा कार्यक्रम दिल्ली-हिमालयन-टॉयलेट्स फैक्ट्री के बहाने बम बनाने का कारखाना कायम करने का था। उस फैक्ट्री में अज्ञेय वैज्ञानिक के रूप में सलाहकार थे। तीसरा कार्यक्रम अमृतसर में पिस्तौल की मरम्मत और कारतूस भरने का कारखाना कायम करने का शुरू हुआ और यहीं देवराज और कमलकृष्ण के साथ 15 नवम्बर, 1930 को गिरफ्तार हुए। गिरफ्तारी के बाद एक महीने लाहौर किले में, फिर अमृतसर की हवालात में। यहीं से यातना शुरू हुई। आर्म्स ऐक्ट वाले मुकदमें में ये छूटे, पर दिल्ली में 1931 में नया मुकदमा शुरू किया गया। यह मुकदमा 1933 तक चलता रहा। दिल्ली जेल में ही काल-कोठरी में बन्द रहे और यहीं रह कर छायावाद से मनोविज्ञान, राजनीति अर्थशास्त्र और कानून—ये सारे विषय पढ़े। यहीं रहकर चिन्ता, विपथगा की अनेक कहानियां और शेखर लिखा; पर यह पूरी अवधि कुल ले-देकर घोर आत्ममन्थन, शारीरिक यातना और स्वप्नभंग की पीड़ा की अवधि रही।
1934 की फरवरी में छूटे, फिर लाहौर में दूसरे कानून के अन्तर्गत नज़रबन्द किये गये। यहीं रह कर कोठरी की बात और चिन्ता की रचना की और इसी अवधि में कहानियों का छपना शुरू हुआ। 1934 के मध्य में घर के अन्दर नज़रबन्द हो गई और घर आने पर एक साथ छोटे भाई और माता की मृत्यु और पिता जी की नौकरी से निवृत्ति—इन सभी घटनाओं ने रोते चित्त में नये उद्वेलन पैदा किए नज़रबन्दी हटने तक ये डलहौजी़ और लाहौर रहे। सात साल के इस अर्से ने कई छाप छोड़ी हैं। रावी के पुल से छलांग मारने पर घुटने की टोपी उतरी और वह दर्द मौका पाते ही आज भी लौट आता है। क्रान्तिकारी जीवन के साथियों में जो लोग आदर्शच्युत हुए या जो टूटने लगे उनके कारण घोर आत्मपीड़न का भाव जाग गया और एकाकीपन का अभ्यास जो बढ़ा, वह अभी भी नहीं छूटा। अज्ञेय को अत्यधिक सामाजिकता इतनी असह्य है, इसका प्रमाण मैं स्वयं दे सकता हूं। कभी-कभी वे स्वागत-समारोहों के बाद लौटने पर ऐसा अनुभव करते हैं कि किसी यन्त्रणा से गुजर कर आए हैं। पर सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण छाप इस जीवन की उनकी राग अनुभूति को सघन बनाने में है। इस जीवन में प्रखर शक्ति और ताप जिस स्रोत से मिला था, उसके आकस्मिक निधन की चोट बड़ी गहरी पड़ी है।
यह वियोग उन्हीं के शब्दों में ‘स्थायी वियोग’ है। उस ‘अत्यन्तगता’ की स्मृति एक अमूल्य थाती है। इसी के सहारे हारिल का धर्म निभाना सबसे बड़ा पार्थिव धर्म उन्होंने जाना है। यह उन्होंने जाना और अपनी ‘मांग को स्वंय अपना खंडन’ माना। ‘आहुति बनकर’ ही उन्होंने प्रेम को ‘यज्ञ की ज्वाला’ के रूप में देखा। ‘वंचनाओं के दुर्ग के रुद्ध सिंहद्वार खोल कर मुक्त आकाश’ के लिए जो अदम्य आशा उनके चित्त में हमेशा भरती रहती है अपने को तटस्थ और एकाकी रख सकने का वह लम्बा अभ्यास। यह सही है कि शिल्प की दृष्टि से और भाषा की दृष्टि से इस अवधि की कविताओं पर छायावाद का गहरा प्रभाव है, पर साथ ही यह भी निर्विवाद है कि कथ्य छायावाद की भूमिका से बिलकुल अलग है। उसका आधार अरूप प्रेम नहीं, न मिटने वाली प्यास नहीं, रहस्य-अन्वेषण नहीं, है ऊर्जस्वी और मांसल प्रेम, प्रत्यंचा तोड़ धनुष का सन्धान (शक्ति के परे आत्मोत्सर्ग) और एक दुर्निवार ऊर्ध्वग ज्वाल। इस दृष्टि से इस अवधि को भट्ठी में गलाई की अवधि कहा जा सकता है।
1937 के अन्त में बनारसीदास चतुर्वेदी के आग्रह से विशाल भारत में गये। लगभग डेढ़ वर्ष कलकत्ता रहे। यहां सुधीन्द्र दत्त, बुद्धदेव बसु, हजारी प्रसाद द्विवेदी, बलराज साहनी और पुलिन सेन परिचय की परिधि में आए। कलकत्ता के महानगर का पहला अनुभव बहुत तीखा रहा। इसके विमानवीकृत पहलू ने इनके संवेदनशील चित्त को बहुत व्यथित किया। विशाल भारत को व्यक्तिगत कारणों से इन्होंने छोड़ा और 1939 में पिताजी के पास बड़ौदा गये। पिताजी ने विदेश जाकर अध्ययन पूरा करने के लिए कहा। इतने में ही महायुद्ध छिड़ गया और दिल्ली आल इण्डिया रेडियो में नौकरी करने चले आये। इसी अन्तराल में हिन्दी साहित्य के अनेकानेक आयामों और चक्रों से तो परिचित हुए ही, पत्रकारिता के आदर्श और व्यवहार के वैषम्य का भी साक्षात् अनुभव प्राप्त किया। इन आकाशवृत्तियों के लाभ मुख्यतः दो हुए। एक तो हिन्दी की साहित्यिक परिधि के भीतर पैठ और दूसरा-अपना जीवन-पथ निर्माण करने का एक विश्वास। यह विश्वास कुछ आवश्यकता से अधिक ही हुआ और इसी के कारण 1940 में एक बहुत बड़ी गलती सिविल मैरेज करके इन्होंने की। यह शादी बहुत बड़ी चुभन बनी। इस चुभन के कारण, कुछ अपने फ़ासिस्ट-विरोधी विश्वास के उफान में इन्होंने 1942 के आन्दोलन को उपयोगी न समझा और उसी साल दिल्ली में अखिल भारतीय फ़ासिस्ट-विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन के बाद में प्रगतिशील लेखक संघ का एक अलग गुट बन गया।
पर उससे इनका सम्बन्ध नहीं था। शाहिद और ये एक साथ थे और कृश्नचन्दर, रामविलास और शिवदानसिंह दूसरी ओर। दोनों विचारधाराओं के लोग अलग-अलग उद्देश्यों से फासिस्ट-विरोधी युद्ध में शरीक हो रहे थे। युद्ध को गलत मानते हुए सुरक्षात्मक युद्ध की अनिवार्यता ये मानते थे। इसीलिए अपने विश्वास को मात्र प्रमाणित करने के लिए युद्ध में 1943 में सम्मिलित हुए। युद्ध के पहले इनका समय अपनी पूर्वपत्नी से अलग मेरठ और दिल्ली में अधिक बीता था। युद्ध में जिस यूनिट में ये सम्मिलित हुए, उसका कार्य प्रतिरोध अभियान (रेजिस्टेंस मूवमेंट) की तैयारी करना था।
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