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मुक्तक / दुष्यंत कुमार

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|रचनाकार= दुष्यंत कुमार |संग्रह=सूर्य का स्वागत / दुष्यंत कुमार
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तरस (१)सँभल सँभल के’ बहुत पाँव धर रहा है मन फूलों की नयी गन्ध पाने कोहूँ मैंखिली धूप में, खुली हवा में, गाने-मुसकाने कोपहाड़ी ढाल से जैसे उतर रहा हूँ मैंतुम अपने जिस तिमिरपाश में मुझको क़ैद किए हो वह बन्धन ही उकसाता क़दम क़दम पे मुझे टोकता है बाहर आ जाने कोदिल ऐसेगुनाह कोई बड़ा जैसे कर रहा हूँ मैं।
(२)
तरस रहा है मन फूलों की नई गंध पाने को
खिली धूप में, खुली हवा में, गाने मुसकाने को
तुम अपने जिस तिमिरपाश में मुझको क़ैद किए हो
वह बंधन ही उकसाता है बाहर आ जाने को।
 
(३)
गीत गाकर चेतना को वर दिया मैने
आँसुओं से दर्द को आदर दिया मैने
प्रीत मेरी आत्मा की भूख थी, सहकर
ज़िंदगी का चित्र पूरा कर दिया मैने
 
(४)
जो कुछ भी दिया अनश्वर दिया मुझे
नीचे से ऊपर तक भर दिया मुझे
ये स्वर सकुचाते हैं लेकिन तुमने
अपने तक ही सीमित कर दिया मुझे।
'''शब्दार्थ :
तिमिरपाश = अंधेरे का बंधन
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