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:विराट रूप विश्व को दिखा रहीं जवानियाँ।
मही प्रदीप्त है, दिशा-दिगन्त लाल-लाल है,
व’ देख लो, जवानियों की जल रही मशाल है;
व’ गिर रहे हैं आग में पहाड़ टूट-टूट के,
व’ आसमाँ से आ रहे हैं रत्न छूट-छूट के;
:उठो, उठो कुरीतियों की राह तुम भी रोक दो,
:बढ़ो, बढ़ो, कि आग में गुलामियों को झोंक दो,
:परम्परा की होलिका जला रहीं जवानियाँ।
व’ देख लो, खड़ी है कौन तोप के निशान पर;
व’ देख लो, अड़ी है कौन जिन्दगी की आन पर;
व’ कौन थी जो कूद के अभी गिरी है आग में?
लहू बहा? कि तेल आ गिरा नया चिराग में?
:अहा, व अश्रु था कि प्रेम का दबा उफान था?
:हँसी थी या कि चित्र में सजीव, मौन गान था?
:अलभ्य भेंट काल को चढ़ा रहीं जवानियाँ।
 
अहा, कि एक रात चाँदनी-भरी सुहावनी,
अहा, कि एक बात प्रेम की बड़ी लुभावनी;
अहा, कि एक याद दूब-सी मरुप्रदेश में,
अहा, कि एक चाँद जो छिपा विदग्ध वेश में;
:अहा, पुकार कर्म की; अहा, री पीर मर्म की,
:अहा, कि प्रीति भेंट जा चढ़ी कठोर धर्म की।
:अहा, कि आँसुओं में मुस्कुरा रहीं जवानियाँ।
 
'''रचनाकाल: १९४४'''
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