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सुदृढ़ नहीं रह पाता।<br><br>
::कृत्रिम शान्ति सशंक आप<br>::अपने से ही डरती है,<br>::खड्ग छोड़ विश्वास किसी का<br>::कभी नहीं करती है|<br><br>
और जिन्हें इस शान्ति-व्यवस्था<br>
सार, सिद्धि दुर्लभ है।<br><br>
::पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर,<br>::शोणित पी कर तन का,<br>::जीती है यह शान्ति, दाह<br>::समझो कुछ उनके मन का।<br><br>
स्वत्व माँगने से न मिले,<br>
जियें या कि मिट जायें?<br><br>
::न्यायोचित अधिकार माँगने<br>::से न मिले, तो लड़ के,<br>::तेजस्वी छीनते समर को<br>::जीत, या कि खुद मर के।<br><br>
किसने कहा पाप है समुचित<br>
अभय मारना-मरना?<br><br>
::क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल<br>::की दे वृथा दुहाई,<br>::धर्मराज व्यंजित करते तुम<br>::मानव की कदराई।<br><br>
हिंसा का आघात तपस्या ने<br>
से हारता रहा है।<br><br>
::मन:शक्ति प्यारी थी तुमको<br>::यदि पौरुष ज्वलन से,<br>::लोभ किया क्यों भरत-राज्य का?<br>::फिर आये क्यों वन से?<br><br>
पिया भीष्म ने विष, लाक्षागृह<br>
कहलायी दासी।<br><br>
::क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल,<br>::सबका लिया सहारा;<br>::पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे<br>::कहो, कहाँ कब हारा?<br><br>