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कोई जीवित ले रहा साँस।
 
 
वह निर्जन तट था एक चित्र,
 
कितना सुंदर, कितना पवित्र?
 
कुछ उन्नत थे वे शैलशिखर,
 
फिर भी ऊँचा श्रद्धा का सिर,
 
 
वह लोक-अग्नि में तप गल कर,
 
थी ढली स्वर्ण-प्रतिमा बन कर,
 
मनु ने देखा कितना विचित्र
 
वह मातृ-मूर्त्ति थी विश्व-मित्र।
 
 
बोले "रमणी तुम नहीं आह
 
जिसके मन में हो भरी चाह,
 
तुमने अपना सब कुछ खोकर,
 
वंचिते जिसे पाया रोकर,
 
 
मैं भगा प्राण जिनसे लेकर,
 
उसको भी, उन सब को देकर,
 
निर्दय मन क्या न उठा कराह?
 
अद्भुत है तब मन का प्रवाह
 
 
ये श्वापद से हिंसक अधीर,
 
कोमल शावक वह बाल वीर,
 
सुनता था वह प्राणी शीतल,
 
कितना दुलार कितना निर्मल
 
 
कैसा कठोर है तव हृत्तल
 
वह इडा कर गयी फिर भी छल,
 
तुम बनी रही हो अभी धीर,
 
छुट गया हाथ से आह तीर।"
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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