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|रचनाकार=कैफ़ी आज़मी
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[[Category:ग़ज़ल]]{{KKCatGhazal}}
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शोर यूँ ही न परिंदों<ref>पक्षियों</ref> ने मचाया होगा,
पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था,
जिस्म जल जाएँगे जब सर पे न साया होगा ।होगा।
बानी-ए-जश्ने-बहाराँ<ref>वसन्तोत्सव के प्रेरणा स्रोतों</ref> ने ये सोचा भी नहीं
किस ने काटों को लहू अपना पिलाया होगा ।होगा।
अपने जंगल से जो घबरा के उड़े थे प्यासे,
ये सराब<ref>धोखा</ref> उन को समंदर नज़र आया होगा ।होगा।
बिजली के तार पर बैठा हुआ तनहा पंछी,
सोचता है कि वो जंगल तो पराया होगा ।होगा।
</poem>
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