भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"ये लफ्ज़ आईने हैं मत इन्हें उछाल के चल/ कुँअर बेचैन" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Singhpratapus (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | ये | + | {{KKGlobal}} |
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=कुँअर बेचैन | ||
+ | |अनुवादक= | ||
+ | |संग्रह= | ||
+ | }} | ||
+ | {{KKCatGhazal}} | ||
+ | <poem> | ||
+ | ये लफ़्ज़ आईने हैं मत इन्हें उछाल के चल, | ||
+ | अदब की राह मिली है तो देखभाल के चल । | ||
− | + | कहे जो तुझसे उसे सुन, अमल भी कर उस पर, | |
+ | ग़ज़ल की बात है उसको न ऐसे टाल के चल । | ||
+ | सभी के काम में आएँगे वक़्त पड़ने पर, | ||
+ | तू अपने सारे तजुर्बे ग़ज़ल में ढाल के चल । | ||
− | + | मिली है ज़िन्दगी तुझको इसी ही मकसद से, | |
+ | सँभाल खुद को भी औरों को भी सँभाल के चल । | ||
− | + | कि उसके दर पे बिना माँगे सब ही मिलता है, | |
+ | चला है रब कि तरफ़ तो बिना सवाल के चल । | ||
+ | अगर ये पाँव में होते तो चल भी सकता था, | ||
+ | ये शूल दिल में चुभे हैं इन्हें निकाल के चल । | ||
− | + | तुझे भी चाह उजाले कि है, मुझे भी 'कुँअर' | |
− | + | बुझे चिराग कहीं हों तो उनको बाल के चल । | |
− | + | </poem> | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | तुझे भी चाह उजाले कि है, मुझे भी ' | + | |
− | + | ||
− | बुझे चिराग कहीं हों तो उनको बाल के चल | + |
19:24, 30 जुलाई 2015 के समय का अवतरण
ये लफ़्ज़ आईने हैं मत इन्हें उछाल के चल,
अदब की राह मिली है तो देखभाल के चल ।
कहे जो तुझसे उसे सुन, अमल भी कर उस पर,
ग़ज़ल की बात है उसको न ऐसे टाल के चल ।
सभी के काम में आएँगे वक़्त पड़ने पर,
तू अपने सारे तजुर्बे ग़ज़ल में ढाल के चल ।
मिली है ज़िन्दगी तुझको इसी ही मकसद से,
सँभाल खुद को भी औरों को भी सँभाल के चल ।
कि उसके दर पे बिना माँगे सब ही मिलता है,
चला है रब कि तरफ़ तो बिना सवाल के चल ।
अगर ये पाँव में होते तो चल भी सकता था,
ये शूल दिल में चुभे हैं इन्हें निकाल के चल ।
तुझे भी चाह उजाले कि है, मुझे भी 'कुँअर'
बुझे चिराग कहीं हों तो उनको बाल के चल ।