"तेवरी काव्यांदोलन" के अवतरणों में अंतर
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११ जनवरी, १९८१ को पुरुषोत्तम दास टण्डन हिन्दी भवन, मेरठ के सभागार में लगभग पचास रचनाकारों की एक गोष्ठी में तेवरी काव्यान्दोलन की भूमिका बनी। इसमें बृ.पा.शौरमी ने कविता की वर्तमान स्थिति को लेकर कुछ चिन्ताएं व्यक्त कीं और ऋषभ देव शर्मा ने "नये कलम-युद्ध का उद्घोष" शीर्षक एक पर्चा प्रस्तुत किया जिसमें नई धारदार अभिव्यक्ति वाले रचनाकर्म की आवश्यकता को प्रतिपादित किया गया और ऐसी रचनाओं के लिए ‘तेवरी’ नाम प्रस्तुत किया गया। | ११ जनवरी, १९८१ को पुरुषोत्तम दास टण्डन हिन्दी भवन, मेरठ के सभागार में लगभग पचास रचनाकारों की एक गोष्ठी में तेवरी काव्यान्दोलन की भूमिका बनी। इसमें बृ.पा.शौरमी ने कविता की वर्तमान स्थिति को लेकर कुछ चिन्ताएं व्यक्त कीं और ऋषभ देव शर्मा ने "नये कलम-युद्ध का उद्घोष" शीर्षक एक पर्चा प्रस्तुत किया जिसमें नई धारदार अभिव्यक्ति वाले रचनाकर्म की आवश्यकता को प्रतिपादित किया गया और ऐसी रचनाओं के लिए ‘तेवरी’ नाम प्रस्तुत किया गया। | ||
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अब तक प्रकाशित रचनाओं को आधार पर तेवरी के चिन्तन के मुख्य बिन्दु इस प्रकार प्रस्तुत किए जा सकते हैं- | अब तक प्रकाशित रचनाओं को आधार पर तेवरी के चिन्तन के मुख्य बिन्दु इस प्रकार प्रस्तुत किए जा सकते हैं- | ||
− | अव्यवस्था के विरुद्ध अभियान | + | '''अव्यवस्था के विरुद्ध अभियान''' |
नवें दशक के प्रारम्भ में सामने आया तेवरी काव्यान्दोलन सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक अव्यवस्था के विरुद्ध तीव्र अभियान चलाने का पक्षपाती है। आज का मनुष्य सभी ओर से घोर अव्यवस्था से घिरा हुआ है और उसके भीतर व्यापक स्तर पर संघर्ष छिड़ा हुआ है। तेवरी इस संघर्ष को अभिव्यक्त करती है। वह स्थितियों के यथार्थ विश्लेषण को प्रस्तुत करते हुए मनुष्य को परूष तेवर देना चाहती है- शोषण, दमन, भूख, उत्पीड़ा, बदहाली, कंगाली का/ कब से ना जाने बनकर इतिहास खड़ा है होरीराम/ आज नहीं तो कल विरोध हर अत्याचारी का होगा/ अब तो मन में बांधे यह विश्वास खड़ा है होरीराम। | नवें दशक के प्रारम्भ में सामने आया तेवरी काव्यान्दोलन सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक अव्यवस्था के विरुद्ध तीव्र अभियान चलाने का पक्षपाती है। आज का मनुष्य सभी ओर से घोर अव्यवस्था से घिरा हुआ है और उसके भीतर व्यापक स्तर पर संघर्ष छिड़ा हुआ है। तेवरी इस संघर्ष को अभिव्यक्त करती है। वह स्थितियों के यथार्थ विश्लेषण को प्रस्तुत करते हुए मनुष्य को परूष तेवर देना चाहती है- शोषण, दमन, भूख, उत्पीड़ा, बदहाली, कंगाली का/ कब से ना जाने बनकर इतिहास खड़ा है होरीराम/ आज नहीं तो कल विरोध हर अत्याचारी का होगा/ अब तो मन में बांधे यह विश्वास खड़ा है होरीराम। | ||
तेवरी की मान्यता है कि इस समय अव्यवस्था के विरोध में खड़ा होना प्रेम और श्रृंगार की वायवी बातें करने से अधिक महत्वपूर्ण है। | तेवरी की मान्यता है कि इस समय अव्यवस्था के विरोध में खड़ा होना प्रेम और श्रृंगार की वायवी बातें करने से अधिक महत्वपूर्ण है। |
17:06, 6 जनवरी 2011 का अवतरण
तेवरी काव्यांदोलनः उद्भव और विकास
११ जनवरी, १९८१ को पुरुषोत्तम दास टण्डन हिन्दी भवन, मेरठ के सभागार में लगभग पचास रचनाकारों की एक गोष्ठी में तेवरी काव्यान्दोलन की भूमिका बनी। इसमें बृ.पा.शौरमी ने कविता की वर्तमान स्थिति को लेकर कुछ चिन्ताएं व्यक्त कीं और ऋषभ देव शर्मा ने "नये कलम-युद्ध का उद्घोष" शीर्षक एक पर्चा प्रस्तुत किया जिसमें नई धारदार अभिव्यक्ति वाले रचनाकर्म की आवश्यकता को प्रतिपादित किया गया और ऐसी रचनाओं के लिए ‘तेवरी’ नाम प्रस्तुत किया गया।
इस गोष्ठी को बुद्धिजीवियों के बीच गम्भीरता से लिया गया और पत्र-पत्रिकाओं ने नए तेवर वाली रचनाओं को उत्साह से प्रकाशित करना शुरू किया। रचनाकारों ने समय-समय पर गोष्ठियाँ आयोजित की और नए तेवर की रचनाओं के लिए नई दिशायें प्रस्तुत की। इससे तेवरी काव्यान्दोलन की वैचारिक पृष्ठ-भूमि तैयार हुई। विचार-दर्शन को पवन कुमार ‘पवन’, डॉ. कृष्णावतार करुण और जगदीश सुधाकर ने भी समय-समय पर आयोजित गोष्ठियों में भाग लेकर स्पष्ट रूप देने में सहयोग किया।
जब अधिसंख्य समशील रचनाकार नए काव्यान्दोलन की आवश्यकता के प्रश्न पर एक मत हो गए, तब डॉ. देवराज ने इसका घोषणा पत्र तैयार किया और ११ जनवरी, १९८२ को इसे खतौली [उत्तर प्रदेश] से जारी कर दिया गया। रचनाकारों ने इस पर विचार किया और इसे स्वीकृति दी। २४ जनवरी, १९८२ को नजीबाबाद में बड़े स्तर पर तेवरी-गोष्ठी आयोजित हुई, जिसमें विभिन्न तेवरीकारों ने वहाँ के रचनाकारों के समक्ष अपने विचार प्रस्तुत किए। यहीं से इस नए काव्यान्दोलन की विचारधारा फैलनी शुरू हुई।
१ जून, १९८२ को ‘तेवरी’ नाम से इस काव्यान्दोलन का पहला काव्य-संग्रह प्रकाशित हुआ। इसमें डॉ. देवराज और ऋषभ देव शर्मा‘देवराज’ की अस्सी तेवरियाँ प्रकाशित हुईं। दोनों रचनाकारों ने संकलन की भूमिका के १९ पृष्ठों मे तेवरी काव्यान्दोलन की आधिकारिक घोषणा की और कविता में नए परिवर्तन की आवश्यकता को प्रतिपादित किया।
७ नवम्बर, १९८२ को खतौली में तेवरीकारों का एक अधिवेशन हुआ जिसमें मेरठ, अलीगढ़, शाहजहांपुर, मुज़फ़्फ़रनगर, बिजनौर आदि स्थानों से आए हुए लगभग एक सौ तेवरीकारों और अन्य बुद्धिजीवियों ने भाग लिया। इस अधिवेशन में ‘तेवरी’ काव्य संग्रह में प्रकाशित भूमिका को पढ़ा गया और सभी लोगों ने इस नए काव्यान्दोलन के सम्बन्ध में कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों से विचार-विमर्श किया। यही वह महत्वपूर्ण अधिवेशन था, जिसने देश के विभिन्न क्षेत्रों में इस आन्दोलन को पहुँचाया तथा साहित्य जगत कविता के एकदम नए परिवर्तन के सम्पर्क में आया।
९ जनवरी १९८३ को ‘साहित्य-मन्थन’, शामली द्वारा तेवरी-संगोष्ठी आयोजित की गई। इसमें तेवरी के सम्बन्ध में उठे प्रश्नों पर पुनर्विचार हुआ, जिससे यह आन्दोलन अधिक तेज़ी से फला-फूला।
तेवरी काव्यान्दोलन को साहित्य जगत में व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करने का श्रेय मेरठ से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘कुन्दनशील’ को है। इस पत्रिका का जुलाई १९८२ का अंक तेवरी-विशेषांक के रूप में प्रकाशित हुआ। इस अंक में तेवरी के घोषणा पत्र सहित कथ्य और शिल्प को लेकर ऋ.दे.शर्मा, विनीता, निर्क्षर, डॉ. कृष्णावतार करुण, डॉ. दिनेश अन्दाज़ आदि के विचार प्रकाशित हुए। आन्दोलन के सम्बन्ध में आई प्रतिक्रियाओं को इसी पत्रिका ने नवम्बर १९८२ के अंक में प्रकाशित किया और फरवरी १९८५ तथा मई १९८६ में ‘कुंदनशील’ के ही ‘तेवरी-२’ और ‘तेवरी-३’ विशेषांक प्रकाशित हुए। अगस्त, १९८२ में ‘संवाद पत्रिका’ [सहारनपुर] ने तेवरी-विशेषांक प्रकाशित किया जिसमें ‘तेवरी: कुछ खास बातें’ शीर्षक से इस काव्यान्दोलन के घोषणाकारों डॉ. देवराज और ऋषभ देव शर्मा का एक महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुआ। नवम्बर, १९८२ में प्रलेख वार्ता [मेरठ] पत्रिका का तेवरी पर केन्द्रित अंक प्रकाशित हुआ। इसमें पुन: कुछ महत्वपूर्ण सामग्री प्रकाशित हुई। इन सभी विशेषांकों की विशेषता यह थी कि इनमें विविध पक्षों पर आधारित लेखों के अतिरिक्त बहुत बड़ी संख्या में तेवरी रचनाओं का प्रकाशन हुआ। इससे रचनाकारों और कविता के पाठकों को इस आन्दोलन को समझने में अधिक सुविधा हुई।
जिन पत्र-पत्रिकाओं ने तेवरी काव्यान्दोलन सम्बन्धी लेखों और तेवरियों का उत्साह से प्रकाशन किया उनमें सहकारी युग [रामपुर], सर्वप्रिय [दिल्ली], कल्पान्त [दिल्ली], बाज़ार पत्रिका [दिल्ली], सर्वोदय-विश्ववाणी [गाज़ियाबाद], राष्ट्र माणिक्य [गाज़ियाबाद], युवाचक्र [शामली], कंचन कावेरी [बंगलोर], स्पर्श [जबलपुर], दुष्यंत [आज़मगढ़], हस्तांकन [मुम्बई], आदर्श कौमुदी [चंदक], मणिपुर हिन्दी परिषद पत्रिका [इम्फाल], तवी दीपिका [जम्मू], और दक्षिण भारत [मद्रास] आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त तेवरी काव्यान्दोलन को समर्पित पत्रिकाएं हैं। सारिका [दिल्ली] ने तेवरी के प्रथम अधिवेशन को १९८२ की विशेष साहित्यिक घटना माना था। साथ ही, दैनिक हिन्दुस्तान ने तेवरी काव्यान्दोलन की विशेष चर्चा की थी। दैनिक पंजाब केसरी और साप्ताहिक हिन्दुस्तान ने भी तेवरी रचनाओं के प्रकाशन में रुची दिखाई।
अब तक तेवरी सम्बन्धी जो काव्य संकलन प्रकाश में आए हैं, उनमें तेवरी [देवराज एवं ऋषभ देव शर्मा], अभी जुबां कटी नहीं [सम्पादक, रमेश राज], मचान [सम्पादक- पवन कुमार ‘पवन’], कबीर जिन्दा है [सम्पादक-रमेश राज], मन्थन-१ [सम्पादक-डॉ. एस.एन.गुप्ता], इतिहास घायल है [सम्पादक-रमेश राज] का नाम लिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त पद चिह्न बोलते हैं, उलझे शब्द, महफिल, युवा रश्मि और संकेतिका आदि समवेत संकलनों में भी तेवरियां प्रकाशित हुई हैं।
तेवरी काव्यान्दोलन से इसके घोषणाकारों डॉ. देवराज एवं ऋ.दे.शर्मा के अतिरिक्त जो मुख्य तेवरीकार सक्रिय रूप से जुड़े उनमें पवन कुमार पवन, वितिंता निर्झर, रमेश राज, डॉ. कृष्णावतार करूण, डॉ. दिनेश अन्दाज़, ज्ञानेन्द्र साज़, सुरेश त्रस्त, योगेन्द्र शर्मा, अज्ञय अंचल, अरूण लहरी, राजेश मेहरोत्रा, गिरि मोहन गुरू, पण्डित करनालवी, फजल इमाम मल्लिक, श्याम बिहारी श्यामल, चाँद मुंगेरी, सतीश नारंग, डॉ. ब्रजनन्दन वर्मा, विक्रम सोनी, राजकुमार निजात, कुमार मणि, जगदीश श्रीवास्तव, शिव कुमार थदानी, निशान्त, अनिल कुमार अनल, राकेश राही, जयसिंह आर्य जय, जसबीर राणा, सुधाकर संगीत, बृ.पा.शौरमी, तुलसी नीलकंठ, सुधाकर आशावादी, वीरेन्द्र मधुर, हरीराम चमचा, महावीर तुषार, कृष्ण सुकुमार, विजयपाल सिंह, राजेन्द्र सोनी, कामेश्वर त्रिपाठी, दर्शन बेज़ार, ऋचा अग्रवाल एवं राजश्री रंजिता के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
तेवरी काव्यान्दोलन में महत्वपूर्ण शब्द ‘तेवर’ है। यह शब्द व्यावहारिक जीवन में विशेष मुद्रा के लिए प्रयोग किया जाता है ऐसी मुद्रा जिसमें आक्रोश का स्पर्श हो। किन्तु केवल आक्रोश ही तेवर को पारिभाषिक नहीं कर सकता। उसमें अन्य तत्व भी मिले हुए होते हैं। ये हैं - असन्तोष, दृढ़ता, कठोरता और विशेष प्रकार की प्राणवत्ता। इनके मेल से जिस विशेष मुद्रा का जन्म ओता है वही सही आक्रोश है, जो तेवरी का निर्माण करता है। यही तेवर तेवरी काव्यान्दोलन में स्वीकार किया गया है और कविता को इसी तेवर में ढालना इस काव्यान्दोलन का लक्ष्य है। यहाँ पर यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि जिस कविता के लिए तेवरी का प्रयोग किया गया है, उसके लिए ‘त्यौरी’ का प्रयोग भी किया जा सकता था, फिर ऐसा क्यों नहीं किया गया? इस सम्बन्ध में तेवरीकारों की मान्यता है कि ‘त्यौरी’ शब्द का प्रयोग करते समय प्रयोगकर्ता का लक्ष्य व्यक्ति की विशिष्ट क्रोधपूर्ण स्थिति का द्योतन करता है। जब भी - त्यौरी चढ़ रही है या त्यौरी बदल रही है जैसे वाक्य प्रयोग किये जाते हैं तब वे क्रोध की स्थिति को ही दिखाते हैं। इसमें व्यक्ति अनियन्त्रित भावावेग का शिकार होता है, जिसमें अविवेक की सम्भावनाएं रहती है। यह स्थिति त्यौरी शब्द को सीमित कर देती है। इसके विपरीत तेवर शब्द अधिक व्यापक अर्थ का द्योतन करता है। तेवर का प्रयोग- तेवर बदल रहा है, तेवर देखिए आदि रूपों में किया जाता है। प्रत्येक रूप में यह परिवर्तित होती हुई मुद्रा, रूप और दशा को अभिव्यक्त करता है। निश्चय ही यह बदलाव असन्तोष से प्रेरित होता है और आक्रोश की ओर बढ़ता हुआ होता है। इसमें अनियन्त्रित भावावेग या अविवेक की सम्भावना नहीं होती। तेवर बदलने के पीछे विपरीत स्थिति के विरुद्ध स्पष्ट प्रतिक्रिया और विरूप को उखाड़ फेंकने का परूष संकल्प होता है। अतः तेवर शब्द उस स्थिति को अभिव्यक्त करता है जो अन्ततः मनुष्य के संघर्ष घर्म को अधिक सक्रिय और दुर्धर्ष बनाती है। यहाँ तेवर शब्द त्यौरी को स्वीकार किया गया है। तेवरी के घोषणापत्र में कहा गया है- "ऐसी कविता जो नँगी पीठ पर पड़ते हुए कोडे की आवाज़, पिटते हुए व्यक्ति के मुख से निकली हुई आह-कराह, भरी सभा में भोली जनता के सामने घड़ियाली आँसू बहाता और कभी न पूरे होने वाले आश्वासन देता हुआ नेता, भूखे बच्चे को बापू के आने का विश्वास दिलाती हुई महिला का स्वर, रोटी माँगती हुई बच्ची, सेवायोजन कार्यालय के सामने खड़े-खड़े थकने पर सारी व्यवस्था को गाली देता हुआ नवयुवक, सुविधाओं के अभाव में आत्महत्या करता हुआ वैज्ञानिक तथा इन सब स्थितियों के विरुद्ध मनुष्य के भीतर लावे की तरह बहने वाला असन्तोष जन्य आक्रोश- इन सब को एक साथ प्रभावशाली रूप में अभिव्यक्ति प्रदान कर सके, निस्सन्देह ‘तेवरी’ है। घोषणापत्र में राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, विज्ञानिक और वैचारिक स्थिति पर विचार करते हुए तेवरी की विभिन्न धारणाओं की व्याख्या भी की गई है। इसी में शिल्प के प्रश्न पर विचार करते हुए तेवरी की भाषा और तुकांत रूप के महत्वपूर्ण मुद्दे स्पष्ट किए गए हैं। भाषा के लिए कहा गया है कि- "कबीर की तरह हमें वह कोई भी शब्द स्वीकार करने में हिचक नहीं है, जो साधारण व्यक्ति को कविता के निकट ला सके, उसे उसके गुण और दोषों से परिचित करा सके, विकृति पर तीर की मानिन्द प्रहार कर सके, धुएं, धूल और कुहरे को पारिभाषित कर सके तथा जीवन को संकल्पित आधार दे सके।" भाषा को तेवरीकारों ने एक ऐसे आन्दोलन के रूप में स्वीकार किया है, जिसमें शब्द को भीड़ में बो देने की चाह है।
तेवरी रचना को मात्रिक या वर्णिक किसी भी छन्द में रचा जा सकता है। लघु से लघु शिल्प रूप द्वारा अभिव्यक्ति करने के उद्देश्य को लेकर तेवरी में यह माना गया है कि दो चरणों में एक-एक इकाई अभिव्यक्ति को स्थापित किया जाए। इसके अनुसार प्रत्येक दो चरणों से मिलकर रचना के एक-एक ‘तेवर’ का गठन होता है और एकाधिक तेवर मिलकर रचना का निर्माण करते हैं। किसी भी तेवरी का प्रथम तेवर तुकान्त होता है। बाद के प्रत्येक तेवर में प्रथम तेवर के दूसरे चरण के तुकान्त रूप को दुहराया जाता है। किन्तु तेवरी रचना में यह अनिवार्य शर्त नहीं है कि प्रत्येक तेवरी का प्रथम तेवर दो चरणों में एक ही तुक का निर्वाह करे। इस दशा में तेवरी प्रारम्भ से ही समपंक्तियों में तुकान्त शिल्प में रची जा सकती है।
तेवरी विविध छन्दों में रची जा सकती है। वह तुकान्त कविता के लोक-रूप के प्रति भी आग्रहि है। लोक में लोक-गायन की जो विविध शैलियां प्रचलित हैं, तेवरी उन्हें अपनाती है और अभिव्यक्ति का सर्वसुलभ माध्यम स्वीकार करती है। इस अर्थ में तेवरी काव्यान्दोलन तुकान्त शिल्प का पक्षधर होता हुआ भी शिल्प के रूढ़ बन्धनों से मुक्ति का हामी है। सहजता उसके शिल्प की विशेषता है। तुकान्त रूप अपनाने के पीछे तेवरी काव्यान्दोलन का तर्क है कि "अतुकान्त रचना के मोह में पड़कर जहाँ हमें पाठक को शिक्षित करने का दायित्व भी सम्पन्न करना होता है [जो बहुत कठिन है], वहीं तुकान्त रचना के माध्यम से बहुत सरलता से जनता के बीच पहुँचा जा सकता है। तुकान्त को स्मृति में स्थापित करना भी सरल है।"
तेवरी की विशेषताओं को स्पष्ट करते हुए तेवरी की आधिकारिक घोषणा में कहा गया है- इस नये तेवर वाली कविता में ये विशेषताएं हों- - यह कविता सम्प्रेषनीयता को मूल धर्म के रूप में स्वीकार कर चले। - शिल्प के अनुशासन के सम्बन्ध में नई दृष्टि अपनाई जाए क्योंकि कविता को अन्ततः पाठक की स्मृति में स्थापित होना है। - यह किसी भी वाद में बंधकर न चले। - किसी भी स्तर पर इस कविता में आभिजात्य प्रवृत्ति का समावेश न हो। - कविता नारेबाज़ी से हटे और उस मनःस्थिति की अभिव्यक्ति करे, जो वास्तव में सामान्य-आदमी की है। - यह कविता विवरण, रूदन आदि से हटकर क्रान्ति-प्रेरणा का कार्य करे। - यह कविता अपनी ज़मीन से जुड़ी हुई हो। युग की इसी आवश्यकता को स्वीकार करते हुए हिन्दी काव्य के क्षेत्र में नए काव्यान्दोलन ‘तेवरी’ का उदय हुआ।"
अब तक प्रकाशित रचनाओं को आधार पर तेवरी के चिन्तन के मुख्य बिन्दु इस प्रकार प्रस्तुत किए जा सकते हैं-
अव्यवस्था के विरुद्ध अभियान नवें दशक के प्रारम्भ में सामने आया तेवरी काव्यान्दोलन सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक अव्यवस्था के विरुद्ध तीव्र अभियान चलाने का पक्षपाती है। आज का मनुष्य सभी ओर से घोर अव्यवस्था से घिरा हुआ है और उसके भीतर व्यापक स्तर पर संघर्ष छिड़ा हुआ है। तेवरी इस संघर्ष को अभिव्यक्त करती है। वह स्थितियों के यथार्थ विश्लेषण को प्रस्तुत करते हुए मनुष्य को परूष तेवर देना चाहती है- शोषण, दमन, भूख, उत्पीड़ा, बदहाली, कंगाली का/ कब से ना जाने बनकर इतिहास खड़ा है होरीराम/ आज नहीं तो कल विरोध हर अत्याचारी का होगा/ अब तो मन में बांधे यह विश्वास खड़ा है होरीराम। तेवरी की मान्यता है कि इस समय अव्यवस्था के विरोध में खड़ा होना प्रेम और श्रृंगार की वायवी बातें करने से अधिक महत्वपूर्ण है।
आक्रोश की अभिव्यक्ति आज की परिस्थियाँ मनुष्य को चारों ओर से काटकर अकेला कर देना चाहती है। इसीलिए मनुष्य असंतोषजन्य आक्रोश से भरा हुआ है। मूलतः मनुष्य का यह आक्रोश राजनीति के प्रति है क्योंकि आज़ादियाँ बंटने लगीं आज़ाद भारत में/ घोषणा थी पा सकेगा गाँव सारा, पर कहाँ/ आज़ादियां छंटने लगी आज़ाद भारत में ।
इतना ही नहीं, जनता के प्रति राजनेताओं की भूमिका बहुत शोषक हो गई हैं- क्या हुआ जो गाँव में, घर-घर अंधेरा है?/ सज गई संसद भवन में, दीपमाला तो!/ कुर्सियों की जीवनी में, व्यस्त दरबारी/ शब्द से चाहे न टूटे, बन्द ताला तो!
इस कारण तेवरी का अधिकांश आक्रोश राजनैतिक अव्यवस्था के प्रति है। यह आक्रोशपूर्ण मुद्रा एक ओर तो तेवरी की परिभाषा का केन्द्र-बिन्दु है, दूसरी ओर तेवरी के चरित्र की राजनैतिक संचेतना को व्यक्त करने वाली भी है। वस्तुतः राजनैतिक अव्यवस्था को अपने चिन्तन के केन्द्र में रखकर और उसके प्रति आक्रोश व्यक्त करके तेवरी अपने युगीन दायित्व को पूर्ण कर रही है।
असंतोषजन्य आक्रोश, जो तेवरी का महत्वपूर्ण मूल्य है, वह नई कविता में भी चर्चित है। यथार्थजीवी कविता होने के कारण नई कविता ने मनुष्य के मन में पैदा होनेवाले विभिन्न परिस्थितियों के प्रभाव को चित्रित करना अपना धर्म घोषित किया था। तेवरी में भी यह मुख्य मूल्य के रूप में स्वीकार किया जाता है किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि नई कविता का आक्रोश-मूल्य ही तेवरी का आक्रोश-मूल्य बन गया है। इसके दो कारण हैं- -नई कविता के सम्बन्ध में आक्रोश, उसके सामान्य मूल्यों में से एक है । तेवरी का लक्ष्य प्रत्येक प्रकार की अव्यवस्था को नष्ट करने के लिए मनुष्य के भीतर पनपनेवाले असन्तोषजन्य आक्रोश को अभिव्यक्त करना और उसे दिशा देना है ताकि मनुष्य अव्यवस्था के समक्ष आत्मसमर्पण न करे।
-नई कविता ने आक्रोश का जो विकास किया था, उसे तेवरी ने मौलिक स्वरूप प्रदान किया क्योंकि तेवरी ने उसे जनमुक्ति के महत्वपूर्ण हथियार के रूप में प्रयोग करने का बीड़ा उठाया है। इस अर्थ में तेवरी का आक्रोश कविता की पूरी पिछली परम्परा के आक्रोश का चरम विकसित रूप है।
जन-जागरण अव्यवस्था का चित्रण भर करना ही तेवरी का लक्ष्य नहीं है। प्रत्येक मनुष्य को उस अव्यवस्था से जूझने के लिए जगना उसका उद्देश्य है। आत्महन्ता पीढ़ियों को जन्म देनेवाली विभीशिकाओं को मात्र देखते रहना अन्याय को चुपचाप सहन करने के अपराध से कम नहीं है। अतः तेवरी जागरण की चुनौती को स्वीकार करती है। कला के क्षेत्र में विकसित नया आन्दोलन समीक्षा बाद भी चित्रों के माध्यम से यही कार्य करता है। तेवरी के जागरण लक्ष्य को प्रस्तुत करने वाले कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं - एक शब्द आग है, जिसको/ हर कविता में लिखा लेखनी/ अब ज़रूरी हो गया है जानना इनका वजूद/ अन्यथा दरबार तक आ जाएँगी पगडण्डियाँ/ बहरी सत्ता, अन्धी सत्ता/ जागो, आओ, दीवाली है/ निर्धन को अधिकार से, रखे न कोई दूर/ ग्रीष्म काल के सूर्य सा, गरजा एक मजूर/ अब सृजन के गीत गाओ, अग्निकण/ फिर जगे जो सो रहा है आदमी।
आज के भारत में व्यापक स्तर पर परिवर्तन लाने के लिए जिस मानसिक गठन की आवश्यकता है, उसका प्रयास इन उदाहरणों में स्पष्ट दिखता है। इससे तेवरी की प्रासंगिकता सिद्ध होती है और राष्ट्रीय जागरण के प्रति उसकी निष्ठा का पता चलता है।
व्यंग्य व्यंग्य का तेवरी में विशेष स्थान है। तेवरी की मान्यता के अनुसार- "काव्य में व्यंग्य की मारक क्रिया कुछ भिन्न प्रकार की होती है। रचनाकार शब्द को पकड़ लेता है और उसमें विस्फोटक शक्ति भरकर लक्ष्य पर प्रहार करता है।" तभी अव्यवस्था के खण्ड-खण्ड होने के अवसर उपस्थित होते हैं। तेवरी में ऐसे प्रयोग बहुतायत से मिलते हैं जिनमें व्यंग्यों की भरमार है। ये व्यंग्य, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनैतिक आदि सभी क्षेत्रों में व्याप्त अव्यवस्था पर चोट करते हैं - कदम-कदम पर हैं बाधाएँ लेकिन हम आज़ाद तो हैं/ आगज़नी, चोरी, हत्याएँ लेकिन हम आज़ाद तो हैं। भाव बढ़ गए है ज़ीरे के यह सरकारी रपट सुनो/ पता नहीं किस करवट बैठे संशोधन का ऊँट यहाँ। रास्ते में एक अन्धे को गिराकर आए जो/ वे घड़े ढ़ोने लगे हैं मन्दिरों में शाम को।
शोषणमुक्त समाज की परिकल्पना तेवरी काव्यान्दोलन ऐसे समाज की परिकल्पना करता है जो रूढ़ि और शोषण से मुक्त हो। इसीलिए तेवरियों में प्रत्येक प्रकार के अन्याय और अनीति का विरोध करनेवाली भवनाएं व्याप्त हैं। समाज के अन्तर्गत तेवरी विश्व समाज को समेटती हुई उसमें से दासता और परतन्त्रता को निकाल फेंकना चाहती है। प्रत्येक प्रकार के वैषम्य और अनीति का विरोध करना तेवरी का स्वभाव है। जहाँ कहीं भी शोषण है, वहीं तेवरी उसे मिटाने के लिए संघर्षरत हैं - विश्व से शोषण मिटे अब यह हमारी मांग है/ युद्ध का खतरा हटे अब यह हमारी माँग है।
रंगभेद का विरोध करने वाले दक्षिण अफ्रीकी क्रान्तिकारी कवि बेंजामिन मोलाइस के बलिदान पर तेवरीकार कह उठता है- नई व्यवस्था लाएगी बेंजामिन की बात/ इन्कलाब तक जाएगी बेंजामिन की बात/ नहीं सुरक्षित रह सकें इन महलों में आप/ ईंट-ईंट जब गाएगी बेंजामिन की बात।
भाषा : एक सशक्त माध्यम तेवरी में भाषा का विशेष महत्व है। वह दो बातों के लिए प्रतिबद्ध है। एक सामान्य जनता की भाषा को अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में अपनाने के प्रति आग्रह और दो - शब्द को हथियार की प्रकृति से भरने की चाह। वस्तुतः ऐसा करके ही कविता को वर्णन और संकेत की भूमिका से बाहर निकाल कर प्रहार की भूमिका दी जा सकती है। तेवरी की भाषा सम्बन्धी घोषणा है- शब्द को पत्थर सरीखा आजमाने का समय है/ सिरफिरों को चोट देकर सिर उठने का समय है।
इसी आधार पर तेवरीकार भाषा को परुष तेवर देने के पक्षपाती हैं। जड़ता को कुरेदने के लिए आज इसी भाषा की आवश्यकता है।
अब तेवरी काव्यान्दोलन व्यापक स्वीकृति प्राप्त कर चुका है, क्योंकि इस आन्दोलन में वर्तमान के प्रत्येक व्यक्ति को उसके अपने मन का आक्रोश और असन्तोष फूटता हुआ दिखाई देता है। डॉ. प्रेमचंद्र जैन के शब्दों में- "यह कहना अब महज़ औपचारिकता है कि तेवरी एक समर्थ कविता का नाम है। यह तो सिद्ध हो चुका है। इसीलिए मैं केवल यही कहना चाहूँगा कि तेवरीकार तेवरी मानसिकता से इस देश को जगाने में सफल हों, ताकि जो कुछ अब तक नहीं किया जा सका, उसे व्यापक स्तर पर करना सम्भव हो सके।"
समकालीन कविता का सबसे नया परिवर्तन तेवरी है। पिछले कुछ दशकों से कविता के तुकान्त रूप को लेकर जिस परिवर्तन का आभास मिल रहा था और जो नए भावबोध के गीत के साथ ने सिरे से उभरना शुरू हुआ था, उस परिवर्तन को तेवरी ने नया व्यवस्थित रूप दिया है और कविता को जमीन से जोड़ने की दिशा में प्रयास किया है। समकालीन कविता इससे निश्चय ही समृद्ध हुई है।
[स्रोत: हिंदी कविता- आठवाँ नवाँ दशक: ऋषभदेव शर्मा : १९९४ : पृ. १५०-१५८] प्रस्तुति: चंद्र मौलेश्वर प्रसाद