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"राखी / नज़ीर अकबराबादी" के अवतरणों में अंतर

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चली आती है अब तो हर कहीं बाज़ार की राखी ।
 
चली आती है अब तो हर कहीं बाज़ार की राखी ।
सुनहरी, सब्ज़, रेशम, ज़र्द और गुलनार की राखी ।
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सुनहरी, सब्ज़, रेशम, ज़र्द और गुलनार<ref></ref> की राखी ।
बनी है गो कि नादिर ख़ूब हर सरदार की राखी ।
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बनी है गो<ref></ref> कि नादिर<ref></ref> ख़ूब हर सरदार की राखी ।
सलूनों में अजब रंगीं है उस दिलदार की राखी ।
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सलूनों में अजब रंगीं है उस दिलदार<ref></ref> की राखी ।
             न पहुँचे एक गुल को यार जिस गुलज़ार की राखी ।।1।।
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             न पहुँचे एक गुल<ref></ref> को यार जिस गुलज़ार<ref></ref> की राखी ।।1।।
  
अयाँ है अब तो राखी भी, चमन भी, गुल भी, शबनम भी ।
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अयाँ<ref></ref> है अब तो राखी भी, चमन भी, गुल भी, शबनम<ref></ref> भी ।
 
झमक जाता है मोती और झलक जाता है रेशम भी ।
 
झमक जाता है मोती और झलक जाता है रेशम भी ।
 
तमाशा है अहा ! हा ! हा गनीमत है यह आलम भी ।
 
तमाशा है अहा ! हा ! हा गनीमत है यह आलम भी ।
 
उठाना हाथ, प्यारे वाह वा टुक देख लें हम भी ।
 
उठाना हाथ, प्यारे वाह वा टुक देख लें हम भी ।
             तुम्हारी मोतियों की और ज़री के तार की राखी ।।2।।
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             तुम्हारी मोतियों की और ज़री<ref></ref> के तार की राखी ।।2।।
  
 
मची है हर तरफ़ क्या क्या सलूनों की बहार अब तो ।
 
मची है हर तरफ़ क्या क्या सलूनों की बहार अब तो ।
हर एक गुलरू फिरे है राखी बाँधे हाथ में ख़ुश हो ।
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हर एक गुलरू<ref></ref> फिरे है राखी बाँधे हाथ में ख़ुश हो ।
हवस जो दिल में गुज़रे है कहूँ क्या आह में तुमको ।
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हवस<ref></ref> जो दिल में गुज़रे है कहूँ क्या आह में तुमको ।
 
यही आता है जी में बनके बाम्हन आज तो यारो ।
 
यही आता है जी में बनके बाम्हन आज तो यारो ।
 
             मैं अपने हाथ से प्यारे के बाँधूँ प्यार की राखी ।।3।।
 
             मैं अपने हाथ से प्यारे के बाँधूँ प्यार की राखी ।।3।।
  
हुई है ज़ेबो ज़ीनत और ख़ूबाँ को तो राखी से ।
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हुई है ज़ेबो ज़ीनत<ref></ref> और ख़ूबाँ<ref></ref> को तो राखी से ।
 
व लेकिन तुमसे अब जान और कुछ राखी के गुल फूले ।
 
व लेकिन तुमसे अब जान और कुछ राखी के गुल फूले ।
 
दिवानी बुलबुलें हों देख गुल चुनने लगीं तिनके ।
 
दिवानी बुलबुलें हों देख गुल चुनने लगीं तिनके ।
तुम्हारे हाथ ने मेंहदी ने अंगश्तो ने नाख़ुन ने ।
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तुम्हारे हाथ ने मेंहदी ने अंगश्तो<ref></ref> ने नाख़ुन ने ।
             गुलिस्ताँ की, चमन की, बाग़ की गुलज़ार की राखी ।।4।।
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अदा से हाथ उठने में गुले राखी जो हिलते हैं ।
 
अदा से हाथ उठने में गुले राखी जो हिलते हैं ।
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कहाँ नाज़ुक यह पहुँचे और कहाँ यह रंग मिलते हैं ।
 
कहाँ नाज़ुक यह पहुँचे और कहाँ यह रंग मिलते हैं ।
 
चमन में शाख़ पर कब इस तरह के फूल खिलते हैं ।
 
चमन में शाख़ पर कब इस तरह के फूल खिलते हैं ।
             जो कुछ ख़ूबी में है उस शोख़ गुल रुख़सार की राखी ।।5।।
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फिरें हैं राखियाँ बाँधे जो हर दम हुस्न के मारे ।
 
फिरें हैं राखियाँ बाँधे जो हर दम हुस्न के मारे ।
 
तो उनकी राखियों को देख ऐ ! जाँ ! चाव के मारे ।
 
तो उनकी राखियों को देख ऐ ! जाँ ! चाव के मारे ।
पहन ज़ुन्नार और क़श्क़ः लगा माथे ऊपर बारे ।
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’नज़ीर’ आया है बाम्हन बनके राखी बाँधने प्यारे ।
 
’नज़ीर’ आया है बाम्हन बनके राखी बाँधने प्यारे ।
 
             बँधा लो उससे तुम हँसकर अब इस त्यौहार की राखी ।।6।।
 
             बँधा लो उससे तुम हँसकर अब इस त्यौहार की राखी ।।6।।
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22:27, 4 जनवरी 2011 का अवतरण

चली आती है अब तो हर कहीं बाज़ार की राखी ।
सुनहरी, सब्ज़, रेशम, ज़र्द और गुलनार<ref></ref> की राखी ।
बनी है गो<ref></ref> कि नादिर<ref></ref> ख़ूब हर सरदार की राखी ।
सलूनों में अजब रंगीं है उस दिलदार<ref></ref> की राखी ।
            न पहुँचे एक गुल<ref></ref> को यार जिस गुलज़ार<ref></ref> की राखी ।।1।।

अयाँ<ref></ref> है अब तो राखी भी, चमन भी, गुल भी, शबनम<ref></ref> भी ।
झमक जाता है मोती और झलक जाता है रेशम भी ।
तमाशा है अहा ! हा ! हा गनीमत है यह आलम भी ।
उठाना हाथ, प्यारे वाह वा टुक देख लें हम भी ।
            तुम्हारी मोतियों की और ज़री<ref></ref> के तार की राखी ।।2।।

मची है हर तरफ़ क्या क्या सलूनों की बहार अब तो ।
हर एक गुलरू<ref></ref> फिरे है राखी बाँधे हाथ में ख़ुश हो ।
हवस<ref></ref> जो दिल में गुज़रे है कहूँ क्या आह में तुमको ।
यही आता है जी में बनके बाम्हन आज तो यारो ।
            मैं अपने हाथ से प्यारे के बाँधूँ प्यार की राखी ।।3।।

हुई है ज़ेबो ज़ीनत<ref></ref> और ख़ूबाँ<ref></ref> को तो राखी से ।
व लेकिन तुमसे अब जान और कुछ राखी के गुल फूले ।
दिवानी बुलबुलें हों देख गुल चुनने लगीं तिनके ।
तुम्हारे हाथ ने मेंहदी ने अंगश्तो<ref></ref> ने नाख़ुन ने ।
            गुलिस्ताँ<ref></ref> की, चमन<ref></ref> की, बाग़ की गुलज़ार<ref></ref> की राखी ।।4।।

अदा से हाथ उठने में गुले राखी जो हिलते हैं ।
कलेजे देखने वालों के क्या क्या आह छिलते हैं ।
कहाँ नाज़ुक यह पहुँचे और कहाँ यह रंग मिलते हैं ।
चमन में शाख़ पर कब इस तरह के फूल खिलते हैं ।
            जो कुछ ख़ूबी में है उस शोख़ गुल रुख़सार<ref>कपोल, गाल, चंचल फूल जैसे गालों वाली</ref> की राखी ।।5।।

फिरें हैं राखियाँ बाँधे जो हर दम हुस्न के मारे ।
तो उनकी राखियों को देख ऐ ! जाँ ! चाव के मारे ।
पहन ज़ुन्नार<ref>यज्ञोपवीत, जनेऊ</ref> और क़श्क़ः<ref>तिलक</ref> लगा माथे ऊपर बारे ।
’नज़ीर’ आया है बाम्हन बनके राखी बाँधने प्यारे ।
            बँधा लो उससे तुम हँसकर अब इस त्यौहार की राखी ।।6।।


शब्दार्थ
<references/>