"आहत युगबोध / जगदीश व्योम" के अवतरणों में अंतर
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युग क्या पहचाने हम कलम फकीरों को | युग क्या पहचाने हम कलम फकीरों को | ||
− | हम | + | हम तो बदल देते युग की लकीरों को |
− | धरती जब मांगती है विषपायी कंठ तब | + | धरती जब मांगती है विषपायी-कंठ तब |
कभी शिव मीरा घनश्याम हुए हम | कभी शिव मीरा घनश्याम हुए हम |
12:33, 9 जनवरी 2011 का अवतरण
आहत युगबोध के जीवंत ये नियम
यूं ही बदनाम हुए हम !
मन की अनुगूंज ने वैधव्य वेष धार लिया
कांपती अंगुलियों ने स्वर का सिंगार किया
अवचेतन मन उदास
पाई है अबुझ प्यास
त्रासदी के नाम हुए हम
यूं ही बदनाम हुए हम !!
अलसाई कामनाएं चढ़ने लगीं सीढ़ियाँ
टूटे अनुबंध, जिन्हें ढो रही थी पीढ़ियाँ
वैभव की लालसा ने
ललचाया मन पांखी
संज्ञा से आज सर्वनाम हुए हम
यूं ही बदनाम हुए हम !!
दुख नहीं तो सुख कैसा सुख नहीं तो दुख कैसा
सुख है तो दुख भी है, दुख है तो सुख भी है
दुख सुख का अजब संग
अजब रंग अजब ढंग
दुख तो है सुख की विजय का परचम
यूं ही बदनाम हुए हम !!
कविता के अक्षरों में व्याकुल मन की पीड़ा है
उनके लिए तो कवि-कर्म शब्द-क्रीडा है
शोषित बन जीते हैं
नित्य गरल पीते हैं
युग की विभीषिका के नाम हुए हम
यूं ही बदनाम हुए हम !!
युग क्या पहचाने हम कलम फकीरों को
हम तो बदल देते युग की लकीरों को
धरती जब मांगती है विषपायी-कंठ तब
कभी शिव मीरा घनश्याम हुए हम
यूं ही बदनाम हुए हम !!
व्योम गुनगुनाया जब अंतस अकुलाया है
खड़ा हुआ कठघरे में खुद को भी पाया है
हम भी तो शोषक हैं
युग के उदघोषक हैं
घोड़ा हैं हम ही लगाम हुए हम
यूं ही बदनाम हुए हम !!