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रचनाकारः अनिल जनविजय
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(गगन गिल के लिए)
मैं ही तुम्हें
ले गया था पहली बार
समुद्र दिखाने
तुम परेशान हुई थीं उसे देखकर
चुप गुमसुम खड़ी रह गई थीं
ख़ामोश बिल्ली की तरह तुम
और समुद्र बेहद उत्साह में था
बार-बार
आकर छेड़ता था वह
आमंत्रित करता था तुम्हें
अपने साथ खेलने के लिए
तुमसे बात करना चाहता था देर तक
नंगी रेत पर तुम्हें बैठाकर
अपनी कविताएँ सुनाना चाहता था
और तुम्हारी सुनना
वह चाहता था
तुम्हारे साथ कूदना
उन बच्चों की तरह
जो गेंद की तरह उछल रहे थे
समुद्र के कंधों पर
सीमाएँ तोड़कर
एक सम्बन्ध स्थापित
करना चाहता था तुमसे
परिवार सुख के लिए
साप्ताहिक अवकाश का दिन था वह
आकाश पर लदी सफ़ेद चिड़ियाँ
उदासी की शक्ल में नीचे उतर आई थीं
और हम भीग गए थे
कितना ख़ुश था उस दिन समुद्र
तुम्हारे नन्हे पैरों को
स्पर्श कर रहा था
तुम्हारी आँखों में उभर रहे
आश्चर्य को देख रहा था
अनुभव कर रहा था
अपने व्यक्तित्व का विस्तार
वह व्याकुल हो गया था
वह तरंग में था
नहाना चाहता था तुम्हारे साथ
बूँदों के रूप में छिपकर
बैठ जाना चाहता था तुम्हारे शरीर में
आँकने लगा था वह
अपने भीतर उमड़ती लहरों का वेग
उसके पोर-पोर में समा गई थी
शिशु की खिलखिलाहट
अपने आप से अभिभूत वह बढ़ा
बढ़ा वह
और सदा के लिए
तुम्हें अपनी बाहों के विस्तार में
समेट लिया था उसने
और आज मैं
अकेला खड़ा हूँ
उसी जगह
समुद्र के किनारे
जहाँ मैं ले आया था तुम्हें
पहली बार
1980 में रचित