भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"यह महाशून्य का शिविर / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 10: | पंक्ति 10: | ||
नीचे यह महामौन की सरिता | नीचे यह महामौन की सरिता | ||
दिग्विहीन बहती है । | दिग्विहीन बहती है । | ||
+ | |||
यह बीच-अधर, मन रहा टटोल | यह बीच-अधर, मन रहा टटोल | ||
प्रतीकों की परिभाषा | प्रतीकों की परिभाषा | ||
आत्मा में जो अपने ही से | आत्मा में जो अपने ही से | ||
खुलती रहती है । | खुलती रहती है । | ||
+ | |||
रूपों में एक अरूप सदा खिलता है, | रूपों में एक अरूप सदा खिलता है, | ||
गोचर में एक अगोचर, अप्रमेय, | गोचर में एक अगोचर, अप्रमेय, | ||
पंक्ति 19: | पंक्ति 21: | ||
पुरुषों के हर वैभव में ओझल | पुरुषों के हर वैभव में ओझल | ||
अपौरुषेय मिलता है । | अपौरुषेय मिलता है । | ||
+ | |||
मैं एक, शिविर का [प्रहरी, भोर जगा | मैं एक, शिविर का [प्रहरी, भोर जगा | ||
अपने को मौन नदी के खड़ा किनारे पाता हूँ : | अपने को मौन नदी के खड़ा किनारे पाता हूँ : |
20:17, 2 फ़रवरी 2011 का अवतरण
यह महाशून्य का शिविर,
असीम, छा रहा ऊपर :
नीचे यह महामौन की सरिता
दिग्विहीन बहती है ।
यह बीच-अधर, मन रहा टटोल
प्रतीकों की परिभाषा
आत्मा में जो अपने ही से
खुलती रहती है ।
रूपों में एक अरूप सदा खिलता है,
गोचर में एक अगोचर, अप्रमेय,
अनुभव मॆम एक अतीन्द्रिय,
पुरुषों के हर वैभव में ओझल
अपौरुषेय मिलता है ।
मैं एक, शिविर का [प्रहरी, भोर जगा
अपने को मौन नदी के खड़ा किनारे पाता हूँ :
मैं, मौन-मुखर, सब छंदों में
उस एक निर्वच, छ्म्द-मुक्त को
गाता हूँ ।