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− | + | बसंत आया, पिया न आए, पता नहीं क्यों जिया जलाये | |
− | + | पलाश-सा तन दहक उठा है, कौन विरह की आग बुझाये | |
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− | + | हवा बसंती, फ़िज़ा की मस्ती, लहर की कश्ती, बेहोश बस्ती | |
− | + | सभी की लोभी नज़र है मुझपे, सखी रे अब तो ख़ुदा बचाए | |
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− | + | पराग महके, पलाश दहके, कोयलिया कुहुके, चुनरिया लहके | |
− | + | पिया अनाड़ी, पिया बेदर्दी, जिया की बतिया समझ न पाए | |
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− | + | नज़र मिले तो पता लगाऊं की तेरे मन का मिजाज़ क्या है | |
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− | + | अभी भी लम्बी उदास रातें, कुतर-कुतर के जिया को काटे | |
− | </pre> | + | असल में ‘भावुक’ खुशी तभी है जो ज़िंदगी में बसंत आए</pre> |
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21:43, 9 फ़रवरी 2011 का अवतरण
सप्ताह की कविता | शीर्षक : बसंत आया, पिया न आए रचनाकार: मनोज भावुक |
बसंत आया, पिया न आए, पता नहीं क्यों जिया जलाये पलाश-सा तन दहक उठा है, कौन विरह की आग बुझाये हवा बसंती, फ़िज़ा की मस्ती, लहर की कश्ती, बेहोश बस्ती सभी की लोभी नज़र है मुझपे, सखी रे अब तो ख़ुदा बचाए पराग महके, पलाश दहके, कोयलिया कुहुके, चुनरिया लहके पिया अनाड़ी, पिया बेदर्दी, जिया की बतिया समझ न पाए नज़र मिले तो पता लगाऊं की तेरे मन का मिजाज़ क्या है मगर कभी तू इधर तो आए नज़र से मेरे नज़र मिलाये अभी भी लम्बी उदास रातें, कुतर-कुतर के जिया को काटे असल में ‘भावुक’ खुशी तभी है जो ज़िंदगी में बसंत आए