"तूर / मख़दूम मोहिउद्दीन" के अवतरणों में अंतर
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वो क्या आता रंगीली रागनी रंगी रबाब आता । | वो क्या आता रंगीली रागनी रंगी रबाब आता । | ||
मुझे रंगीनियों में रंगने वो रंगी सहाब आता | मुझे रंगीनियों में रंगने वो रंगी सहाब आता | ||
− | लबों की मय पिलाने झूमता | + | लबों की मय पिलाने झूमता मस्ते शबाब आता । |
+ | यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी । | ||
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+ | हवा के बोझ से जब हर क़दम पर लग़ज़िशें होती | ||
+ | फ़ज़ा में मुंतशर रंगीं बदन की लरज़िशें होती । | ||
+ | रबाबे दिल के तारों में मुसलसिल जुम्बिशें होती | ||
+ | ख़िफ़ाए राज़ की पुरलुत्फ़ बाहम कोशिशें होती । | ||
+ | यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी । | ||
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+ | बहे जाते थे बैठे इश्क़ के ज़र्री सफीने में | ||
+ | तमन्नाओं का तूफ़ाँ करवटें लेता था सीने में । | ||
+ | जो छू लेता था मैं उसको वो नहा जाता पसीने में | ||
+ | मय-ए-दो आतिशा के से मज़े आते थे जीने में । | ||
+ | यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी । | ||
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+ | बला-ए-फ़िक्रे फर्दा हमसे कोसों दूर होती थी | ||
+ | सुरूर-ए-सरमदी से ज़िंदगी मामूर होती ती । | ||
+ | हमारी ख़िल्वते मासूम रश्के तूर होती थी | ||
+ | मलिक झूला झुलाते थे ग़ज़ल खाँ हूर होती थी । | ||
+ | यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी । | ||
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+ | न अब वो खेत बाक़ी हैं न वो आबे रवाँ बाक़ी | ||
+ | मगर उस ऐश-ए-रफ़्ता का है इक धुँधला निशाँ बाक़ी । | ||
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18:30, 8 फ़रवरी 2011 का अवतरण
यहीं की थी मुहब्बत के सबक की इब्तेदा मैंने
यहीं की जुर्रते इज़हार-ए हर्फ-ए मुद्दआ मैंने ।
यहीं देखे थे इश्वे नाज़ो-अंदाज़े हया मैंने
यहीं पहले सुनी थी दिल धड़कने की सदा मैंने ।
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी ।
दिलों में इज़्दहामे आरजू लब बंद रहते थे
नज़र से गुफ़्तगू होती थी दम उलफ़त का भरते थे ।
न माथे पर शिकन होती, न जब तेवर बदलते थे
ख़ुदा भी मुस्कुरा देता था जब हम प्यार करते थे ।
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी ।
वो क्या आता के गोया दौर में जामे शराब आता
वो क्या आता रंगीली रागनी रंगी रबाब आता ।
मुझे रंगीनियों में रंगने वो रंगी सहाब आता
लबों की मय पिलाने झूमता मस्ते शबाब आता ।
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी ।
हवा के बोझ से जब हर क़दम पर लग़ज़िशें होती
फ़ज़ा में मुंतशर रंगीं बदन की लरज़िशें होती ।
रबाबे दिल के तारों में मुसलसिल जुम्बिशें होती
ख़िफ़ाए राज़ की पुरलुत्फ़ बाहम कोशिशें होती ।
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी ।
बहे जाते थे बैठे इश्क़ के ज़र्री सफीने में
तमन्नाओं का तूफ़ाँ करवटें लेता था सीने में ।
जो छू लेता था मैं उसको वो नहा जाता पसीने में
मय-ए-दो आतिशा के से मज़े आते थे जीने में ।
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी ।
बला-ए-फ़िक्रे फर्दा हमसे कोसों दूर होती थी
सुरूर-ए-सरमदी से ज़िंदगी मामूर होती ती ।
हमारी ख़िल्वते मासूम रश्के तूर होती थी
मलिक झूला झुलाते थे ग़ज़ल खाँ हूर होती थी ।
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी ।
न अब वो खेत बाक़ी हैं न वो आबे रवाँ बाक़ी
मगर उस ऐश-ए-रफ़्ता का है इक धुँधला निशाँ बाक़ी ।
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